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fascinating story behind the traffic signals

कैसे शुरू हुआ था ट्रैफिक सिग्नल का सफर? जानिए लाल-हरी बत्ती के पीछे की कहानी

जब हमें कहीं जल्दी पहुंचना होता है, तो हम चौराहें पर लगी लाल, पीली और हरी बत्तियों को अक्सर समय की बर्बादी समझते हैं। लेकिन, यही ट्रैफिक लाइट्स सड़क दुर्घटना को कम करने में अहम भूमिका निभाती हैं। 
Editorial
Updated:- 2025-03-22, 17:00 IST

ट्रैफिक सिग्नल हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है। ये सड़क पर वाहनों और पैदल यात्रियों की आवाजाही को नियंत्रित करने के लिए लगाए जाते हैं। पहला जमाने में, ट्रैफिक सिग्नल मैन्युअल रूप से संचालित किए जाते थे, लेकिन समय के साथ इनमें नई तकनीक का इस्तेमाल किया जाने लगा और ये स्वचालित हो गए। आज हम इस आर्टिकल में आपको बताने वाले हैं कि ट्रैफिक सिग्नल की शुरुआत कैसे हुई, समय के साथ इसमें क्या बदलाव आए?

ट्रैफिक सिग्नल की शुरुआत

पहला ट्रैफिक सिग्नल दिसंबर 1868 में ब्रिटिश संसद के बाहर लगाया गया था। उस समय, सड़कों पर घोड़ा-गाड़ी दौड़ा और पैदल यात्री होते थे, जिससे यातायात को नियंत्रित करना मुश्किल था। इस समस्या को हल करने के लिए ब्रिटिश रेलवे इंजीनियर जॉन पीक नाइट ने रेलवे सिग्नल सिस्टम से प्रेरणा लेकर एक नया ट्रैफिक कंट्रोल सिस्टम तैयार किया। इस शुरुआती ट्रैफिक सिग्नल में लाल और हरी बत्तियां होती थीं, जो गैस की रोशनी से जलती थीं। इसे एक पुलिस अधिकारी मैन्युअली संचालित करता था। हालांकि, समय के साथ ट्रैफिक लाइट्स को अधिक आधुनिक और स्वचालित बनाया गया, जिससे सड़क सुरक्षा और भी बेहतर हो गई।

कैसे काम करता था पहला ट्रैफिक सिग्नल?

What is the history of traffic lights

1868 में दिन के समय सड़क पर ट्रैफिक को कंट्रोल करने के लिए सेमाफोर आर्म्स (एक तरह की झंडी) का इस्तेमाल किया जाता था। जब हाथ ऊपर उठाया जाता था, तो गाड़ियां रुक जाती थीं। जब हाथ नीचे किया जाता था, तो गाड़ियां आगे बढ़ जाती थीं। वहीं, रात के समय गैस-लाइट लैंप का इस्तेमाल किया जाता था। इन लाइटों में लाल और हरे रंग शामिल थे। लाल रंग संकेत देता था कि आपको रुक जाना है और हरा रंग आगे बढ़ने का संकेत देता था। 

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पहले ट्रैफिक सिग्नल की असफलता

हालांकि, यह सिस्टम ज्यादा दिनों तक प्रभावी नहीं रहा, लेकिन जनवरी 1869 में एक बड़ा हादसा हुआ। गैस रिसाव के कारण एक ट्रैफिक लाइट में विस्फोट हो गया, जिसमें एक पुलिस अधिकारी को बहुत चोटें आईं। इस घटना के बाद गैस से चलने वाले सभी ट्रैफिक सिग्नल को हटा दिया गया। इसके बाद, लंदन में दोबारा ट्रैफिक सिग्नल लगाने का विचार ठंडे बस्ते में चला गया। 

1912, साल्ट लेक सिटी: ट्रैफिक लाइट का अनोखा प्रयोग

1900 के दशक की शुरुआत में, ट्रैफिक पुलिस अधिकारियों को सड़कों के बीच में खडे़ होकर ट्रैफिक को कंट्रोल करना पड़ता था, जिससे उन्हें भी खतरा होता था। इस समस्या को हल करने के लिए साल्ट लेक सिटी पुलिस विभाग ने एक नई तरकीब निकाली। साल्ट लेक सिटी पुलिस के ट्रैफिक डिवीजन प्रमुख लेस्टर एफ. वायर ने 1912 में एक खास ट्रैफिक लाइट सिस्टम विकसित किया। यह सिस्टम लड़की के बक्से की तरह था और इसे चौराहे के बीचोंबीच लगाया गया था। इसमें हरा और लाल बल्ब था। सड़क किनारे खड़ा ट्रैफिक पुलिस मैन्युअल रूप से स्विच फ्लिप करके लाइट को बदलता था। कहा जाता है कि यह दुनिया का पहला ट्रैफिक सिग्नल था, लेकिन लेस्टर वायर ने अपने इस आविष्कार को आधिकारिक तौर पर पेटेंट नहीं कराया। 

1914, क्लीवलैंड: पहली इलेक्ट्रिक ट्रैफिक लाइट

1913 में अमेरिका में कार एक्सीडेंट से 4000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। उस समय ट्रैफिक को संभालने के लिए पुलिस अधिकारी मौजूद रहते थे। क्लीवलैंड के इंजीनियर जेम्स होगे ने इस समस्या का हल निकालने के लिए ट्रेन में इस्तेमाल होने वाले लाल और हरे सिग्नल को अपनाया और इसे इलेक्ट्रिक सिस्टम से जोड़ा। ट्रैफिक सिग्नल को पुलिस अधिकारी केंद्र में बने कंट्रोल बूथ से संचालित करते थे। पहली इलेक्ट्रिक ट्रैफिक लाइट को 1914 में क्लीवलैंड की 105वीं स्ट्रीट और यूक्लिड एवेन्यू पर लगाया गया था। इसमें दो लाइटें थीं, जो चौराहे पर आने वाले ड्राइवरों को दिखाई देती थीं। 

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1920, डेट्रायट: पहली तीन रंगों वाली और चौतरफा ट्रैफिक लाइट

History of traffic signals

साल 1920 में डेट्रायट के पुलिस अधिकारी विलियम पॉट्स ने पहली बार तीन रंगों वाली ट्रैफिक लाइट बनाई थी। जिसमें, लाल रंग को रुकने के लिए, हरे को चलने के लिए और पीले को धीमा होने का संकेत देने के लिए जोड़ा गया था। पीली लाइट चालकों को चेतावनी देती थी कि लाल सिग्नल होने वाला है। डेट्रायट पहला शहर बना, जहां 4-तरफा, 3-रंगों वाली ट्रैफिक लाइट्स चौराहों के केंद्र में लगाई गईं। 

1922, ह्यूस्टन: ट्रैफिक लाइट्स में स्वचालित टाइमर की शुरुआत

साल 1922 में ह्यूस्टन शहर में ट्रैफिक सिग्नल को नियंत्रित करने के लिए स्वचालित टाइमर लगाए गए थे। इससे फायदा हुआ कि ट्रैफिक अधिकारियों की जरूरत कम हो गई। वहीं, 1932 में गैरेट मॉर्गन नामक आविष्कारक ने तीन रंग वाली ट्रैफिक लाइट का पेटेंट कराया। हालांकि, जनरल इलेक्ट्रिक (GE) ने इस तकनीक में रुचि दिखाई और मॉर्गन ने अपना पेटेंट 40,000 डॉलर में GE को बेच दिया। 

1950 के दशक में कम्प्यूटर तकनीक का विकास होने लगा और 1990 के दशक में Countdown Timers का आविष्कार हुआ, जिससे पैदल यात्रियों और ड्राइवरों दोनों को ट्रैफिक लाइट्स के बदलने का अनुमान लगाने में मदद मिलने लगी। 

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Image Credit - freepik, wikipedia 

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