दिवाली के 9 दिन के बाद यानि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को आंवला नवमी के रूप में मनाया जाता है। इसे अक्षय नवमी के नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों के अनुसार, इस दिन आंवले के पेड़ के नीचे बैठने और भोजन करने से बीमारियां दूर होती है और व्यक्ति निरोगी होता है। इसके साथ ही इस दिन आंवले के पेड़ की पूजा करके महिलाएं सौभाग्य और संतान प्राप्ति की कामना करती हैं।
जी हां यह पर्व नेचर के प्रति आभार प्रकट करने का पर्व है। इस दिन आंवले के पेड़ की पूजा करने सें परिवार में सुख समृधि बढ़ती है। इस दिन किया गया दान, पूजा, व्रत करने से व्यक्ति के सभी तकलीफें दूर होती है और सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। पदम पुराण के अनुसार अक्षय नवमी के दिन आंवले के वृक्ष में भगवान विष्णु और शिवजी का वास होता है।
पण्डित दयानन्द शास्त्री जी बताते हैं कि अक्षय नवमी के दिन आंवले के वृक्ष की पूजा होती है। कहा जाता है कि भगवान विष्णु कार्तिक शुक्ल नवमी से लेकर कार्तिक पूर्णिमा की तिथि तक आंवले के पेड़ पर निवास करते हैं। अक्षय नवमी के दिन आंवले के पेड़ के अलावा भगवान विष्णु की भी विधि विधान से पूजा अर्चना की जाती है। शास्त्रों के अनुसार, अक्षय नवमी के दिन स्नान, पूजा, तर्पण तथा अन्नादि के दान से अक्षय फल की प्राप्ति होती है। अक्षय नवमी को धात्री नवमी और कूष्माण्ड नवमी के नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों के अनुसार अक्षय नवमी के दिन किया गया पुण्य कभी समाप्त नहीं होता। ऐसी भी मान्यता है कि इस दिन द्वापर युग का आरंभ हुआ था। कहा जाता है कि आज ही विष्णु भगवान ने कुष्माण्डक दैत्य को मारा था और उसके रोम से कुष्माण्ड की बेल उत्पन्न हुई। इसी कारण आज के दिन कुष्माण्ड का दान करने से उत्तम फल मिलता है।
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आंवला नवमी के दिन भगवान विष्णु और शिवजी को एक साथ खुश किया जा सकता है। इस दिन दोनों देवों की एक साथ पूजा की जा सकती है क्योंकि जहां आंवले का फल मौजूद होता है वहां भगवान विष्णु, लक्ष्मीह और शिव जी हमेशा विराजमान रहते हैं। कहा जाता है कि आंवला खाने से उम्र बढ़ती है। साथ ही यह भी माना जाता है कि आंवले के पानी से नहाने से दरिद्रता हमेशा के लिए दूर हो जाती है और धन और ऐश्वर्या की प्राप्ति होती है। इसलिए आंवला नवमी के दिन एक बार आंवले के पेड़ के दर्शन जरुर करें।
धार्मिक कथाओं के अनुसार एक बार माता लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करने आईं। रास्ते में उनकी भगवान विष्णु एवं शिव जी की पूजा एक साथ करने की इच्छा हुई। ऐसे में लक्ष्मी मां ने विचार आया कि विष्णु और शिव की पूजा एक साथ कैसे हो सकती है। तभी उन्हें ख्याल आया कि तुलसी और बेल के गुण एक साथ आंवले में पाएं जाते हैं। तुलसी भगवान विष्णु को प्रिय है और बेल शिव को। आंवले के पेड़ा को विष्णु और शिव का प्रतीक मानकर मां लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ की पूजा की। पूजा से खुश होकर भगवान विष्णु और शिव प्रकट हुए। लक्ष्मी माता ने आंवले के पेड़ के नीचे भोजन बनाकर विष्णु और भगवान शिव को कराया। इसके बाद मां ने भोजन किया। जिस दिन ऐसा हुआ उस दिन कार्तिक शुक्ल नवमी थी। तभी से यह परंपरा चली आ रही है।
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