कान फिल्म फेस्टिवल अपने ग्लैमर वाले हिस्से के लिए तो सुर्खियों में काफी रहता है। लेकिन इसमें दिखाई जाने वाली फिल्मों की बात लोग कम ही करते हैं। लेकिन इस बार इन फिल्मों पर बात करना तो बनता है। क्योंकि इस फिल्म फेस्टिवल में नंदिता दास की उर्दू फिल्म मंटो को दिखाया गया है जिसकी चारों तरफ तारीफें हो रही हैं।
71वें कान फिल्म समारोह के अनसर्टेन रिगार्ड खंड में यह फिल्म दिखाई गई। फिल्म के प्रदर्शन के बाद यहां हाउसफुल डेबुसी थियेटर में दर्शकों ने खड़े होकर नंदिता दास और उनकी टीम का अभिनंदन किया। इस फिल्म में मंटो का मुख्य किरदार नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने बड़ी शिद्दत से निभाया है। इस फिल्म में उर्दू के नामवर लेखक सआदत हसन मंटो (1912-1955) के जीवन के अंतिम सात-आठ सालों की घटनाओं और उनकी 5 बदनाम कहानियों को फिल्म का आधार बनाया गया है। जिन्हें आज भी हिंदी साहित्य की अच्छी फिल्मों में शामिल किया जाता है।
दस रुपए
नंदिता दास की फिल्म मंटो, कहानी दस रुपए से शुरू होती है। यह कहानी कम उम्र की एक वेश्या की कहानी है जो पार्ट टाइम के तौर पर यह काम करती है। इसमें वेश्या की भी संवेदनशीलता और ईमानदारी के बारे में बताया गया है जो अपने तीन अमीर ग्राहकों के साथ पूरा दिन बिताने के बाद उनके दस रुपए लौटा देती है और कहती है कि "जब कोई काम ही नहीं हुआ तो पैसे किस बात के लूं।"
हिंदु-मुस्लिम दंगे
इस कहानी के बाद यह फिल्म 1946 के बंबई को दिखाती है जहां मंटो बांबे टाकीज में फिल्में लिखने का काम करते हैं । जहां अशोक कुमार और के आसिफ हैं तो इस्मत चुगताई, रजिंदर सिंह बेदी , ख्वाजा अहमद अब्बास और प्रगतिशील लेखक संघ के दूसरे लेखक हैं। देश आजाद हो रहा है और चारों ओर हिंदू-मुसलिम दंगे हो रहे हैं। मंटो के सबसे करीबी दोस्त और तब के सुपर स्टार श्याम (श्याम सुंदर चड्ढा) को खबर मिलती है कि रावलपिंडी में उनके चाचा दंगों मे मारे गए हैं ।
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श्याम गुस्से में वे मंटो से कहता है कि "सारे मुसलमानों को मार डालना चाहिए।" तो मंटो पूछते हैं कि "क्या मुझे भी मार डालोगे?" श्याम कहता है कि "हां।"
इसी घटना के बाद मंटो को पहली बार एहसास होता है कि वे इंसान नहीं मुसलमान हैं। वे कहते है कि जब मजहब दिल से उतरकर सिर पर चढ़ जाए तो टोपियां भी हिंदू-मुसलमान हो जाती हैं। मंटो और श्याम की दोस्ती एक मिसाल मानी जाती है। जब वे पाकिस्तान जाने का फैसला करते हैं तो बांबे पोर्ट पर श्याम ही उन्हें विदा करने आते हैं। रास्ते में अपने पसंदीदा पानवाले की दुकान से गुजारते हुए वे कहते हैं- मैं चाहता हूं कि जिंदगी भर इस शहर का कर्जदार रहूं। पानवाले का एक रुपया बकाया था। दोनो शराब का घूंट लेकर हिप्पतुल्ला कहते हुए विदा लेते हैं।
ठंडा गोश्त
विभाजन से होते हुए फिल्म मंटो की कहानी ठंडा गोश्त को दिखाती है जिसके लिए लाहौर में मंटो पर अश्लीलता का मुकदमा चलता है। कोर्ट में गवाही देते हुए फैज अहमद फैज कहते हैं कि यह कहानी साहित्य के मानदंडों पर खरी नहीं उतरती। मंटो कहते हैं कि अगर आप मेरे अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसलिए कि यह जमाना ही नाकाबिले-बर्दाश्त है।
खोल दो
इसके अलावा इस फिल्म में ‘हजार वाट का बल्ब’ कहानी को भी दिखाया गया है जिसमें एक वेश्या अपने दलाल का इसलिए कत्ल कर देती है कि कई रातों से वह उसे सोने नहीं दे रहा था। वहीं इस फिल्म का सबसे माप्मिक हिस्सा है ‘खोल दो’ कहानी पर आधारित हिस्सा। ‘खोल दो’में लगातार बलात्कार की शिकार मरणासन्न बेहोश सकीना डॉक्टर के कहने पर कि दरवाजे-खिड़कियां खोल दो, अपने सलवार का नाड़ा खोलकर सलवार नीचे खिसका देती है।
अगर आप इस फिल्म को देखने से कतराती हैं तो एक बार अपने लिए यह फिल्म जरूर देखें। क्योंकि इस फिल्म में एक महिला के कई सारे रुप एक ही किरदार में अलग-अलग तरीके से दिखाए गए हैं।
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