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कच्छ के एक छोटे से गांव की पाबिबेन ने बॉलीवुड तक बनाई अपनी पहचान

पाबिबेन के पाबिबैग गांव की महिलाओं को अपनी क्रिएटिविटी और हुनर से अपनी पहचान बनाने के लिए इंस्पायर करते हैं।
Her Zindagi Editorial
Updated:- 2019-01-08, 15:04 IST

पाबिबेन रबारी गुजरात के कच्छ के एक छोटे से गांव, भरदोई की रहने वाली हैं। जिनकी कला को अंतराष्ट्रीय स्तर पर जगह मिली है। चौथी तक पढी पाबिबेन अपनी एक वेबसाइट चलाती हैं। वेबसाइट के जरिये हाथ से बने हुए खास तरह के प्रोडक्ट बेचे जाते हैं। पाबिबेन ने अपनी विलुप्त हो रही पारंपरिक कला को अंतराष्ट्रीय स्तर पर एक खास पहचान दिलाई है। पाबिबेन अपने इस काम की वजह से, कला के क्षेत्र में एक जाना माना नाम हो चुकीं हैं, और उनकी वेबसाइट अच्छी खासी कमाई भी करती है।

पाबिबेन के पाबिबैग ने खडी की लाखों के टर्नओवर की कंपनी

पाबिबेन अपने रबारी समुदाय की पहली ऐसी महिला हैं, जिन्होंने कोई कारोबार खडा किया है। दो वर्षों में ही इस कारोबार का टर्नआवर कम से कम 20 लाख रूपये पहुंच चुका है।

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पाबिबेन की पारिवारिक आर्थिक स्थिति खराब होने की बजह से इनकी मां घर घर जाकर काम करती थी। तब पाबिबेन भी अपनी मां के साथ घरों में पानी भरने का काम किया करती थी। पूरे दिन काम करने के बाद पाबिबेन को 1 रूपया मेहनताना मिल जाया करता था। आर्थिकी खराब होने के कारण ही पाबिबेन को चौथी के बाद पढने का मौका नहीं मिला।

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रबारी समुदाय की पारम्परिक प्रथा

रबारी जाति भारत के गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब और हरियाणा में रहती हैं जो अलग-अलग उप जातियों के नाम से जाने जाते हैं। पाबिबेन गुजरात के आदिवासी रबारी समुदाय से है, यहां की एक प्रथा थी कि बेटियां अपने ससुराल के लिए अपने हाथों से बने कपडे लेकर जाएगी। इसी प्रथा के चलते वहां एक खास तरह की पारंपरिक कढाई बुनाई की जाती है। पाबिबेन ने बचपन में ही अपनी मां से इस कला को सीखा था। इस कढाई बुनाई में काफी बारीक काम होता उन दिनों एक कपडा तैयार करने में दो से तीन महीने का समय लग जाता। लडकी को इन कपडों को तैयार करने के लिए मां-बाप के घर कई दिनों तक रहना पडता। इस कारण बुजुर्गों ने इस प्रथा को खत्म कर दिया पर पाबिबेन को इस काम से बहुत प्यार था और पाबिबेन चाहती थी ये कला खत्म न हो।

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1998 में उन्हें एक संस्था के साथ काम करने का मौका मिला, जहां इसी तरह की कला के लिए फंडिग की जा रही थी। तब पाबिबेन ने इस कला को बचाने की कोशिश शुरू की। तब उन्होंने इस कला को ''हरी-जरी'' नाम दिया। उन्हें इस हरी-जरी नाम की कढाई में महारत हासिल थी। पाबिबेन ने काफी समय इस संस्था के साथ काम किया, उन्हें 300 रूपये तनख्वाह मिलती थी और साथ में काम भी सीखने को मिला।

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अंतराष्ट्रीय स्तर पर बुलंदियां छूता पाबिबेन का कारोबार

पाबिबेन अपने इस काम को लेकर आगे बढ ही रही थी कि उनकी शादी हो गई। पाबिबेन की शादी में कुछ विदेशी लोग भी आए, जिन्हें हाथ से बनाए खास तरह के बैग भेंट में दिये गये। विदेशी लोगों को पाबिबेन के बैग बहुत पंसद आए और उन्होंने पाबिबेन के इस बैग को 'पाबिबैग' का नाम दे दिया। विदेशियों की इस तारीफ को देखकर पाबिबेन को उनके ससुराल के लोगों ने भी साथ दिया। यहीं से पाबिबेन ने अपना काम शुरू किया और उनके सपनों को उडान मिली।

 


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चौथी पढी पाबिबेन रबारी ने महिला करीगरों को उनकी पहचान दिलाकर 60 महिलाओं के साथ मिलकर हरी-जरी नाम की कढाई से 20 प्रकार से ज्यादा डिजायनों के बैग बनाती हैं। गांव महिलाओं के साथ मिलकर पाबिबेन ने अपनी फर्म बनाई जिसका नाम रखा पाबिबेन डॉट कॉम। उनको पहला ऑर्डर 70 हजार का मिला। आज कपनी का सालाना टर्नओवर 20 लाख रूपये तक पहुंच चुका है।

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फिल्म लक बाय चांस में भी मिली जगह

पाबिबेन के पाबिबेग को बडे पर्दे की फिल्म “लक बाय चांस” में भी इस्तेमाल किया गया है। जर्मनी, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, लंदन जैसे कई शहरों में इनके पाबिबैग की मांग है। सरकार ने भी पाबिबेन को ग्रामीण उद्यमी बनकर लोगों की मदद करने की वजह से इन्हें वर्ष 2016 में जानकी देवी बजाज पुरूसकार से सम्मानित किया गया। आज पाबिबेन डॉट कॉम, दुनिया में जाना पहचाना नाम है। इनके इस प्रयास और मेहनत को  “हर जिंदगी” सलाम करती है।

 

 

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