अरुंधति रॉय: भारत की वो पहली महिला जिसने जीता बुकर पुरस्कार अवॉर्ड

बचपन से विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के बाद भी अरुंधति रॉय ने अपनी एक अलग पहचान बनाई और अंततः वह बुकर अवॉर्ड जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।

 

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कहते हैं लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती और हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती- यह कथन भारत की फेमस लेखिका और समाजसेविका अरुंधति रॉय पर बिल्कुल सटीक बैठता है। द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स के लिये बुकर अवॉर्ड प्राप्त कर चुकी अरुंधति रॉय अलग-अलग मुद्दों पर अपनी राय मुखरता से रखती हैं। अरुंधति रॉय ने बचपन से ही विपरीत परिस्थितियों का सामना किया है। उनके क्रांतिकारी विचार कहीं ना कहीं उनकी मां की देन हैं, क्योंकि उनका माता महिला अधिकार आंदोलनकारी थीं।

यूं तो उन्होंने अभिनय के क्षेत्र में भी काम किया है, लेकिन लोग उन्हें उनके साहित्य जगत में दिए गए अभूतपूर्व योगदानों के लिए जानते हैं। अरुंधति रॉय ने लेखन के अलावा नर्मदा बचाओ आंदोलन सहित अन्य कई जन आंदोलनों में भी हिस्सा लिया है। उनका पूरा जीवन किसी भी महिला के लिए बेहद प्रेरणात्मक है। तो चलिए आज इस लेख में हम लेखिका और समाजसेविका अरुंधति रॉय के जीवन के बारे में करीब से जानते हैं-

अरुंधति रॉय का प्रारंभिक जीवन

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अरुंधति रॉय का जन्म शिलॉन्ग में 24 नवम्बर 1961 को केरल में हुआ था। मात्र 2 वर्ष की आयु में ही उनके माता-पिता अलग हो गए। जिसके बाद, वह अपनी मां और भाई के साथ रहने लगीं। उनका माता महिला अधिकार कार्यकर्ता थी, जिसके कारण उनके विचारों ने अरुंधति को बेहद प्रभावित किया।

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मुश्किलों से भरा रहा सफर

अरुंधति रॉय ने कम उम्र में बहुत कुछ विपरीत स्थितियों को झेला है। उन्होंने महज 16 साल की उम्र में अपना घर छोड़ दिया था। आगे पढ़ाई करने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे और इसके लिए उन्होंने खाली बोतले बेची थीं। जब उनके पास पैसे इकट्ठे हो गए तब उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर में दाखिला लिया। इस बात का खुलासा उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में किया था।

अभिनय की दुनिया में भी किया काम

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अरुंधति रॉय ने लेखन से पहले अभिनय की दुनिया में भी कदम रखा। उन्होंनें मैसी साहब नाम की फिल्म में लीड रोल प्ले किया। उन्होंने 1989 में द एनी गिव्स इट देस ओन्स के लिए स्क्रीनप्ले लिखा। इसके बाद अरुंधति ने अन्य भी कई फिल्मों के लिए भी लिखा। साल 1988 में अरुंधति रॉय को बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला। साल 1994 में उन्होंने शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन की आलोचना की, जो फूलन देवी के जीवन पर आधारित थी। अरुंधति रॉय ने शेखर कपूर पर फूलन देवी के जीवन और उसके अर्थ दोनों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने का आरोप लगाया।

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अरुंधति रॉय की उपलब्धियां

अरुंधति रॉय को उनके उपन्यास द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स के लिए 1997 के बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस पुरस्कार में उन्हें लगभग 30000 यूएस डॉलर मिले। उन्होंने प्राप्त पुरस्कार राशि के साथ-साथ अपनी पुस्तक की रॉयल्टी को मानवाधिकारों के लिए दान कर दिया।(महिला लेखकों द्वारा लिखी गईं 5 बेहतरीन किताबें)

  • अरुंधति रॉय को 1989 में बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। 2015 में, उसने धार्मिक असहिष्णुता और भारत में दक्षिणपंथी समूहों द्वारा बढ़ती हिंसा के विरोध में राष्ट्रीय पुरस्कार लौटा दिया।
  • 2003 में, उन्हें सैन फ्रांसिस्को में ग्लोबल एक्सचेंज ह्यूमन राइट्स अवार्ड्स में वुमन ऑफ पीस के रूप में “विशेष मान्यता“ से सम्मानित किया गया।
  • रॉय को सामाजिक अभियानों में उनके काम और अहिंसा की वकालत के लिए मई 2004 में सिडनी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
  • साल 2004 में ही उन्हें नेशनल कांउसिल ऑफ टीचर ऑफ इंग्लिश द्वारा ऑरवेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
  • नवंबर 2011 में, उन्हें विशिष्ट लेखन के लिए नॉर्मन मेलर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।(फेमस नॉवेल्स पर बनी हैं ये बेस्ट फिल्में)
  • रॉय को 2014 में दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की टाइम 100 की सूची में शामिल किया गया था।
  • यकीनन अरुंधति रॉय एक बेहद ही मजबूत महिला है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी आवाज को बुलंद करना जानती हैं। आपको अरुंधति रॉय के जीवन से जुड़ा यह लेख कैसा लगा? अपनी प्रतिक्रिया हमें फेसबुक पेज पर अवश्य दें।

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Image Credit- theguardian, independent.co.uk, wikimedia

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