
झारखंड की आदिवासी बुनाई, जिसे मुख्य रूप से तसर रेशम के लिए जाना जाता है, ने अपने पारंपरिक दायरे से निकलकर वैश्विक पहचान बनाई है। यह हथकरघा कला, जिस में प्राकृतिक रंगों और महीन कारीगरी का इस्तेमाल होता है। यह कला अब स्थानीय बाजार तक सीमित नहीं है, बल्कि बॉलीवुड हस्तियों के फैशन कलेक्शन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकप्रिय मन की बात शो का भी हिस्सा बन चुकी है। यह बुनाई न केवल प्रकृति से जुड़ाव रखने वाली आदिवासी समुदायों ने अपनी भावनाओं, त्योहारों और जीवनशैली को रंग-बिरंगे धागों और बुनावटों के माध्यम से व्यक्त किया। यही कारण है कि झारखंड के हथकरघा उत्पाद केवल कपड़ा नहीं, बल्कि उनकी पहचान की तरह काम करता है। कभी स्थानीय मेलों और गांवों तक सीमित रहने वाली यह बुनाई वर्तमान में बॉलीवुड से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंच चुकी है।
इस लेख में आज हम आपको हथकरघा कला से जुड़ी खास बातें, जो इसे लोकल से ग्लोबल तक का एक अनोखा सफर बनाती हैं।

हथकरघा बुनाई को बनाने में किसी भी प्रकार के आधुनिक उपकरण का इस्तेमाल नहीं होता है। हथकरघा से तैयार कपड़े और साड़ी को पूरी तरह से हाथ से बुना जाता है, जिसमें बिजली का कोई प्रयोग नहीं होता। यह कला पूरी तरह से कारीगर के अनुभव पर निर्भर करती है।
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भारत के विभिन्न राज्यों की अपनी विशिष्ट हथकरघा शैलियां होती है, जिसमें ये जगह शामिल हैं जैसे बनारसी (उत्तर प्रदेश), कांजीवरम (तमिलनाडु), पटोला (गुजरात), बालूचरी (पश्चिम बंगाल), पिहाड़ी शॉल (हिमाचल प्रदेश)। हालांकि हर क्षेत्र की अपनी खास डिजाइन, रंग और तकनीक होती है, जो उसे अलग पहचान दिलाती है। हथकरघा मेक इन इंडिया और वोकल फॉर लोकल जैसे अभियानों का मजबूत स्तंभ है।

हथकरघा वस्त्रों में मुख्यता कॉटन, सिल्क, ऊन जैसे प्राकृतिक रेशों का प्रयोग होता है। साथ ही पारंपरिक प्राकृतिक रंगों जैसे हल्दी, नीला, मेहंदी का उपयोग किया जाता है, जो इसे पर्यावरण के अनुकूल बनाता है।
हथकरघा भारत की स्वतंत्रता आंदोलन का एक अहम हिस्सा रहा है। महात्मा गांधी ने चरखा और खादी के माध्यम से आत्मनिर्भरता का संदेश दिया, जो हथकरघा आंदोलन का ही हिस्सा था। हथकरघा उद्योग लाखों बुनकरों और शिल्पकारों की रोजी-रोटी का साधन है।
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