कला और संस्कृति हर स्थान की विशेषता का उल्लेख करती हैं। आज हम जिस कला के बारे में आपको बताने जा रहे हैं, उसे आप सभी ने देखा होगा मगर आप उसके नाम से शायद ही वाकिफ हों। हम बात कर रहे हैं हिमांचल प्रदेश की लोकप्रिय फोक आर्ट 'चंबा रूमाल कढ़ाई' के बारे में।
रूमाल तो आप सभी इस्तेमाल करते होंगे। अगर आप से पूछा जाए कि कितनी कीमत तक के रूमाल आप इस्तेमाल करते हैं, तो शायद आप यही कहेंगे कि 10, 20, 50 या 100 रुपये तक के रूमाल ही आपके पास होंगे। मगर हम जिस कढ़ाई के बारे में आज आपको बताने जा रहे हैं, उसकी शुरुआत एक छोटे से रूमाल पर हुई और आज फैशन वर्ल्ड में इस एम्ब्रॉयडरी को एक अलग ही पहचान मिल चुकी है। इतना ही नहीं, यह रूमाल कपड़े का एक बड़ा सा टुकड़ा होता है, जिस पर इस अनोखी कढ़ाई को किया जाता है। मजे की बात तो यह है कि कढ़ाई वाला यह रूमाल 100 या 1000 रुपये का नहीं बल्कि 5000 रुपये से लेकर 10000 रुपये और 10 लाख रुपये तक मिलता है।
आज हम इस आर्टिकल में 'चंबा रूमाल कढ़ाई ' के बारे में बात करेंगे। यह विशेष प्रकार की कढ़ाई होती है और इसका इतिहास भी बहुत रोचक है।
चंबा रूमाल कढ़ाई एक विशिष्ट प्रकार की कढ़ाई है। यह हस्तशिल्प कला हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में सबसे ज्यादा लोकप्रिय है और इस लिए इसका नाम भी जिले पर आधारित है। इस कढ़ाई को आमतौर पर सूती या रेशमी कपड़े पर किया जाता है और इसमें कहानी नुमा सुंदर डिजाइंस होते हैं। चंबा रूमाल का नाम इसके आकार से पड़ा है, क्योंकि यह पहले के समय में छोटे कपड़े, जैसे कि रूमाल, पर की जाती थी। इस कला का उपयोग परंपरागत रूप से कपड़े, गहनों के थैले और अन्य सजावटी वस्तुओं पर किया जाता था और आज भी इस कढ़ाई को हैंडीक्राफ्ट आइटम्स में खूब देखा जा सकता है। हालांकि, अब इस तरह की कढ़ाई आपको साड़ी, दुपट्टों और सूट्स पर भी देखने को मिल जाएगी।
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इस कला की उत्पत्ति के बारे में कई किस्से और कहानियां प्रचलित हैं। कहते हैं कि सिखों के पहले गुरु, गुरु नानक देव जी की बहन नानकी ने सबसे पहले इस रुमाल को बनाया था। यह रुमाल आज भी ऐतिहासिक धरोहर के रूप में होशियारपुर के एक गुरुद्वारे में संरक्षित है। 17वीं सदी में राजा पृथ्वी सिंह ने चंबा रुमाल की कला का खूब विस्तार और विकास किया। 18वीं शताब्दी में जब देश में ब्रिटिश सरकार का कब्जा हुआ, तो अंग्रेजों से मित्रता भाव रखने के लिए राजा गोपाल सिंह ने ब्रिटिश सरकार को यह कला तोहफे में पेश की। वहीं राजा उमेद सिंह ने इस कला को विदेश तक पहुंचाया ऐसा कहा जाता है कि आपको लंदन और स्कॉटलैंड में भी इस तरह की एम्ब्रॉयडरी कपड़ों पर देखने को मिल जाएगी। यह तक कि लंदन के विक्टोरिया अल्बर्ट म्यूजियम में इस कला की एक निशानी को आज भी सहेज कर रखा गया है, जो अंग्रेज भारत छोड़ने के साथ-साथ यहां ले आए थे।
यह कला विशेष रूप से चंबा रियासत में प्रचलित हुई। ऐसा कहा जाता है कि पहले मुगलों के दरबार में इस कला के फनकारों को इज्जत बख्शी जाती थी। जब मुगलों का पतन हुआ तो धीरे से इस कला के फनकारों ने हिमांचल प्रदेश के चंबा में शरण ली और फिर यह कला वहीं फली फूली। सबसे ज्यादा इस कढ़ाई को आप बड़े-बड़े रूमालों पर देखेंगे। इन्हें शुभा माना जाता है और विवाह समारोह के दौरान वर-वधु पक्ष के लोग कपड़े के टुकड़े को, जिस पर यह कला की गई होती है, उसे एक दूसरे से बदलने के रिवाज को आज भी मानते हैं।
चंबा रूमाल कढ़ाई ने फैशन की दुनिया में एक खास मुकाम हासिल किया है। पहले यह कला मुख्य रूप से पारंपरिक वस्त्रों तक ही सीमित थी, लेकिन अब यह आधुनिक फैशन में भी अपना स्थान बना चुकी है। डिजाइनर्स इस विशिष्ट कढ़ाई को अपने कलेक्शंस में शामिल कर रहे हैं, जिससे यह सिर्फ पारंपरिक नहीं, बल्कि समकालीन फैशन में भी लोकप्रिय हो रही है। हिमाचल से दो शख्सियतों को इस कला में पद्मश्री अवॉर्ड मिल चुका है। इनमें से एक हैं ललिता वकील। ललिता न केवल खुद इस कला में माहिर है बल्कि उन्होंने बहुत सारे घर में बैठने वाली महिलाओं और लड़कियों को यह कला सिखाई है। आपको अब ब्लाउज, साड़ी, रूमाल, शॉल, सूट, दुपट्टों आदि में चंबा रूमाल कढ़ाई की नाजुक और खूबसूरत डिजाइंस देखने को मिल जाएंगी।
चंबा रूमाल कढ़ाई ने आधुनिक समय में भी अपनी खास पहचान बनाई है। यह केवल एक पारंपरिक कला नहीं है, बल्कि एक फैशन स्टेटमेंट भी बन चुकी है। आधुनिक डिजाइनर्स इस कला को अपने कलेक्शन में शामिल कर रहे हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि चंबा रुमाल कढ़ाई भारतीय हस्तशिल्प में एक अनमोल रत्न के रूप में उभरती नजर आ रही है।
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