साड़ी...आपके और मेरे लिए बस एक 6 यार्ड का कपड़ा नहीं है बल्कि यह एक ऐसा परिधान है जो हर महिला को खास दिखाता है। ऐसा कहा जाता है कि एक साड़ी ही है जो आपको एक ही समय में मॉर्डन और पारंपरिक दिखा सकता है।
भारत में ऐसे कई फैब्रिक और एंब्रॉयडरी आर्टवर्क है जो पॉपुलर है। इन्हीं में एक कांथा है। यह पश्चिम बंगाल में ही नहीं बल्कि देश भर में लोकप्रिय है। कांथा वर्क बंगाल की महिलाओं की प्रतिभा और कौशल का एक बेहतरीन उदाहरण है। इस एंब्रॉयडरी में जो सिलाई की जाती है उसे 'रनिंग स्टिच' कहते हैं।
पारंपरिक रूप से इसे क्विल्ट्स, धोती और साड़ी पर ही बुना जाता था, लेकिन समय के साथ इसने फैशन की दुनिया में भी क्रांति की।
सूत को पुरानी साड़ी के किनारों से लिया जाता है। इसके बाद डिजाइन का पता लगाया जाता है और अंत में रनिंग स्टिच के साथ एंब्रॉयडरी को पूरा किया जाता है। आज इस तरह की कढ़ाई शॉल, तकिए के कवर, दुपट्टे और घरेलू सामानों पर भी देखी जा सकती है।
बंगाल की महिलाओं की यह प्रतिभा आखिर कैसे चर्चित हुई, आइए आज इसके बारे में आप और हम विस्तार से जानें।
कहा जाता है कि कांथा भारतीय कढ़ाई की सबसे प्राचीन कला है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसके समृद्ध इतिहास का पता आप पहले और दूसरी AD से लगा सकती हैं। इस कढ़ाई को करने का उद्देश्य यह था कि पुराने कपड़ों और मटेरियल को फिर से इस्तेमाल किया जा सके और उनसे कुछ नायाब बनाया जा सके। यही कारण है कि यह अपनी तरह की एक अद्भुत कढ़ाई है।
कांथा का काम लगभग 500 साल पुराना है और इससे जुड़ा एक बड़ा मिथक भी है। यह बताता है कि भगवान बुद्ध और उनके शिष्यों ने रात में खुद को ढकने के लिए विभिन्न प्रकार के पैच वर्क के साथ पुराने चिथड़ों का इस्तेमाल किया और इसी सी कांथा कढ़ाई की शुरुआत हुई।
पारंपरिक रूप से महिलाएं 4-5 साड़ियों की लेयरिंग करती थीं और अलग-अलग चलती सिलाई से उन्हें एक साथ तैयार करती थीं। कांथा चिथड़े के कपड़े सिलने की सदियों पुरानी परंपरा है, जो पश्चिम बंगाल और ओडिशा और बांग्लादेश में विकसित हुई है।
बंगाल के ग्रामीण गांवों में जन्मी, यह कला 19वीं शताब्दी की शुरुआत में ही गायब हो गई थी। 1940 में प्रसिद्ध बंगाली कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर की बहू ने कला को फिर से पुनर्जीवित किया। ऐसा माना जाता है कि यह संस्कृत शब्द कोंथा से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'चिथड़ा' होता है।
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सबसे शुरुआती और बुनियादी कांथा सिलाई एक सरल, सीधी, चलने वाली सिलाई है। समय के साथ, इसमें अधिक विस्तृत पैटर्न विकसित हुए, जिन्हें 'नक्शी कांथा' के रूप में जाना जाने लगा। नक्शी कांथा धर्म, संस्कृति और उन्हें सिलाई करने वाली महिलाओं के जीवन से प्रभावित रूपांकनों से बना है।
इसने महिलाओं की कल्पनाओं को मुक्त शासन दिया। कढ़ाई में लोक विश्वासों और प्रथाओं, धार्मिक विचारों, पौराणिक कथाओं और महाकाव्यों से विषयों और पात्रों को बुना गया। उनके सपने, उम्मीदें और गांव का जीवन इस कला में प्रदर्शित होता है। कढ़ाई के इस रूप में कमल, शैलीबद्ध पक्षी, पौधे, मछली, फूल और कई अन्य दृश्य बुने जाते हैं।
पुरानी साड़ियां और धोती कांथा के धागों का ओरिजिनल सोर्स होता था। इस प्रकार की कढ़ाई में प्रचलित रंग वे हैं जो आमतौर पर दैनिक जीवन में पाए जाते हैं-पीला, लाल, हरा, काला और नीला। कांथा फैब्रिक में नेचुरल सबस्टांस का ही इस्तेमाल डाई बनाने में किया जाता था। आधुनिक कांथा कपड़ों में आमतौर पर एक ऑफ-व्हाइट (व्हाइट कलर ऐसे करें स्टाइल) का बेस होता है क्योंकि यह सुंदर कढ़ाई वाले धागे के रंगों की सुंदरता को बढ़ाने का काम करता है।
उपयोगिता के अनुसार इसके अलग-अलग नाम हैं। 7 तरह का खूबसूरत कांथा वर्क आप अपने फैब्रिक में देखते हैं, आइए उनके बारे में जानें।
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कांथा के काम की सबसे अच्छी बात यह है कि यह अपने आप में एक बेहतरीन एक्सेसरी है और इसे बेहतर दिखाने के लिए किसी अतिरिक्त एक्सेसरीज की जरूरत नहीं होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इसका उपयोग विभिन्न रूपों में और विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। आपकी साड़ी में यह एक सुंदर बॉर्डर के रूप में होता है या नक्शी कढ़ाई के रूप में साड़ी की सुंदरता बढ़ाता है। आप इसे पहनते वक्त कभी गलत नहीं हो सकती हैं (सिल्क साड़ी के साथ पहनें ये एक्सेसरीज)।
इसे आप सिर्फ किसी फंक्शन या इवेंट में ही नहीं बल्कि ऑफिस में भी पहन सकती हैं। एक क्लासिक और रीगल लुक पाने के लिए इस कढ़ाई से बेहतर साड़ी क्या ही होगी?
तो दोस्तों यह था कांथा का समृद्ध इतिहास। आज कई डिजाइनर आगे आए हैं और इस कला पर काम कर रहे हैं। इस नायाब आर्टवर्क की एक अलग ही प्रसिद्धी है।
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Image Credit: Instagram@kanthabyfarahkhan, Shopify
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