आज तक आप सभी ने बैंगन के कई वैरायटी तका स्वाद चखा होगा, काला, नीला, लंबा, गोल और सफेद समेत बाजार में कई तरह के बैंगन मिलते हैं। लोग अलग-अलग बैंगन को कई तरह की रेसिपी बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। जैसे गोल बड़े बैंगन से अक्सर लोग भर्ता बनाकर खाते हैं, तो वहीं छोटे और सफेद बैंगन से भंरवा बैंगन बनाते हैं। छत्तीसगढ़ में हरे रंग के बैंगन का उपयोग बैंगन की कढ़ी बनाने के लिए किया जाता है। बता दें कि इन सभी बैंगन में एक बैंगन है, जो कर्नाटक में सदियों से भगवान के भोग के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इस बैंगन को कर्नाटक या दक्षिण भारत में मट्टू गुल्ला के नाम से जाना जाता है। इस मट्टू गुल्ला बैंगन से आपने भी सब्जी और भर्ता बनाकर खाया होगा लेकिन आपको इसके इतिहास के बारे में नहीं पता होगा। चलिए जानते हैं इसके बारे में।
मट्टू गुल्ला क्या है?
मट्टू गुल्ला सुंदर हरे रंग का बैंगन है, जिसमें सफेद रंग की धारियां बनी हुई होती है। मट्टू गुल्ला कर्नाटक के उडुपी जिले के मट्टू गांव से आता है। इस मट्टू गुल्ला की कहानी प्राचीन लोक कथा से संबंधित है। आज भी मट्टू गांव में रहने वाले लोग सुबह स्नान आदि कर भगवान का पूजा करते हैं और आशीर्वाद के लिए मट्टू गुल्ला का भोग लगाया जाता है।
मट्टू गुल्ला बैंगन अपने नरम गूदा, कम बीज और मिठास के लिए जाना जाता है। यह स्थानीय भोजन का मुख्य हिस्सा है, जिसे पारंपरिक व्यंजन जैसे सांभर, गोज्जू और पारंपरिक करी में इस्तेमाल किया जाता है। इस बैंगन को मट्टू गांव में उगाया जाता है, जो कि उडुपी शहर से 10 किलोमीटर दूर है। साल 2011 में इस हरे और गोल बैंगन को इसके विशिष्ट स्वाद और सुगंध के लिए GI Tag मिला था।
मट्टू गुल्ला से संबंधित है ये लोक कथा
प्राचीन मान्यताओं और लोक कथा के अनुसार एक संत थे श्री वदिराज तीर्थ, जो श्री हयग्रीव (अश्व देव) को रोजाना हयग्रीव मद्दी नामक भोग लगाते थे। यह भोग बंगाल चना, गुड़ और कसे हुए नारियल से बनाया जाता था। इस भोग को रोजाना वदिराज जी अश्व देव को अपने सिर पर रखकर खिलाते थे और कुछ भोग को अश्वदेव खाकर वदिराज के लिए छोड़ देते थे। अश्व को वदिराज का भोग लगाना और अश्व का भोग को इतने प्रेम से खाकर वदिराज के लिए छोड़ना दूसरे भक्तों को नहीं पसंद आता था।
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एक बार ईर्ष्यालु भक्तों ने मिलकर वदिराज के बनाएं मद्दी में जहर मिला दिया। इस बाद की जानकारी वदिराज को नहीं थी, लेकिन जब हयग्रीव को पता चला तो वदिराज को बचाने के लिए उस दिन सारा मद्दी खुद खा गए और वदिराज के लिए नहीं बचाएं। मद्दी खाते ही श्वेत अश्व का रंग नीला पड़ने लगा और उडुपी के भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति भी नीली हो गई।
भगवान हयग्रीव के साथ जो कुछ भी हुआ उससे वदिराज बहुत दुखी हुए और भगवान से इसके समाधान और उपचार के लिए प्रार्थना की, जिसके बाद हयग्रीव ने वदिराज को एक बीज दिया और कहा 48 दिन बाद जब इस पौधे से फल फलेगा, तब उन बैंगनों को पकाकर भगवान को प्रसाद रूप में खिलाने से जहर का असर खत्म होगा। लगातार मट्टू गुल्ला से तैयार प्रसाद को श्वेत अश्व एवं कृष्ण जी को खिलाने से कुछ ही दिनों में जहर का असर खत्म हुआ। तब से लेकर आजतक उडुपी एवं मट्टू गांव में आज भी यह परंपरा संस्कृति का हिस्सा है।
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