महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर उन्हें विजय दिलाई, लेकिन इसके बावजूद, यह बात अक्सर कही जाती है कि श्री कृष्ण कर्ण को अर्जुन से भी ज़्यादा पसंद करते थे। ऐसे कई उदाहरण भी हैं जब श्री कृष्ण ने अर्जुन और कर्ण के मध्य हुए मतभेद में कर्ण का साथ दिया। जब हमने इस बारे में ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से पूछा तो उन्होंने हमें कई रोचक तथ्य और यह समझाया कि आखिर क्यों श्री कृष्ण की नेत्रों में कर्ण का स्थान अर्जुन से भी ऊंचा था।
कर्ण की दानवीरता
श्री कृष्ण कर्ण को उनकी अतुलनीय दानवीरता के लिए विशेष रूप से पसंद करते थे। कर्ण एक ऐसा योद्धा था जिसने अपने जीवन में कभी किसी को कुछ भी देने से मना नहीं किया, चाहे उसकी जान पर ही क्यों न बन आए। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तब देखने को मिलता है जब इंद्र देव ब्राह्मण वेश में कर्ण के कवच और कुंडल मांगने आए। यह जानते हुए भी कि इनके बिना वह युद्ध में कमजोर पड़ जाएगा और उसकी मृत्यु निश्चित है, कर्ण ने उन्हें दान कर दिया। मृत्यु शैया पर भी जब श्रीकृष्ण ने उनकी दानवीरता की परीक्षा ली, तो कर्ण ने अपने सोने के दांत तोड़कर उन्हें दे दिए। श्रीकृष्ण स्वयं कर्ण को सबसे बड़ा दानी मानते थे। यह गुण उन्हें अत्यंत प्रिय था, क्योंकि दान धर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
कर्ण का मित्र धर्म
कर्ण ने अपने जीवन भर दुर्योधन का साथ निभाया, भले ही उसे पता था कि दुर्योधन अधर्म के मार्ग पर है। जब श्रीकृष्ण ने स्वयं कर्ण को पांडवों के पक्ष में आने और हस्तिनापुर का राजा बनने का प्रस्ताव दिया, तब भी कर्ण ने अपने मित्र दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा। उसने कहा कि दुर्योधन ने उसे उस समय सहारा दिया जब पूरी दुनिया ने उसे सूत-पुत्र कहकर तिरस्कृत किया। इस निष्ठा और मित्रता के प्रति अटूट समर्पण ने भी श्रीकृष्ण को प्रभावित किया। हालांकि, दुर्योधन का साथ देना उसका नैतिक चुनाव था, लेकिन मित्रता निभाने के इस अटल संकल्प को श्रीकृष्ण ने सराहा।
कर्ण का दुर्भाग्य और संघर्ष
कर्ण का जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण और विडंबनाओं से भरा था। जन्म से वह कुंती का पुत्र और पांडवों का बड़ा भाई था, लेकिन परिस्थितियों के कारण उसे सूत-पुत्र के रूप में पाला गया। उसे हमेशा अपनी पहचान और सम्मान के लिए लड़ना पड़ा। समाज में उसे कभी वह स्थान नहीं मिला जिसका वह वास्तव में हकदार था। श्रीकृष्ण, जो स्वयं धर्म के ज्ञाता थे, कर्ण के इस दुर्भाग्यपूर्ण जीवन और उसके संघर्षों को भली-भांति समझते थे। वे जानते थे कि कर्ण स्वभाव से धर्मनिष्ठ था, लेकिन परिस्थितियों और अपमान ने उसे गलत संगति में धकेल दिया। इस मानवीय पहलू को श्रीकृष्ण ने हमेशा समझा और सराहा।
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कर्ण की क्षमता और नैतिकता
कर्ण एक महान योद्धा और पराक्रमी धनुर्धर था, जो अर्जुन के बराबर ही सक्षम था, बल्कि कुछ मायनों में उनसे भी बढ़कर था। श्रीकृष्ण ने कर्ण की क्षमताओं को हमेशा स्वीकार किया। युद्ध के दौरान भी, जब कर्ण का रथ दलदल में फंस गया और वह निहत्था था, तब अर्जुन को तीर चलाने के लिए कहना श्रीकृष्ण को भी भारी लगा। यह दर्शाता है कि वे कर्ण के नैतिक मूल्यों और युद्ध-नीति के प्रति उनकी निष्ठा को पहचानते थे। उन्होंने कर्ण के अंतिम संस्कार भी अपने हाथों से किए, जो उनके प्रति श्रीकृष्ण के सम्मान को दर्शाता है।
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