यूं तो 'मां' का 'मां' होना ही काफी है। लेकिन, हमारी सोसाइटी हो, टीवी सीरियल्स हों या फिल्में हों, मां को लेकर इतने स्टीरियोटाइप सेट कर दिए हैं कि हर मां पर सुपरमॉम बनने का प्रेशर आ जाता है। बेशक मां का दर्जा भगवान से भी ऊंचा है। लेकिन, यह भी सच है कि मां भी इंसान ही है और इसलिए जब कोई लड़की, मां बनती है, तो उसे गलती करने, सीखने और समझने का मौका देना चाहिए। असल में, मां के बारे में जो पाठ हमें शुरू से पढ़ाया गया है, उसमें मां से कोई गलती हो जाना, मां का अपने लिए वक्त निकालना और अपने सपनों को जीना, कहीं शामिल ही नहीं है। बात अगर टीवी सीरियल्स की भी करें, तो इनमें भी आंसू बहाती हुई मां...किचन में बच्चों के लिए खाना बनाती हुई मां...'मां' की छवि कुछ इस तरह की ही दिखाई जाती है। कहीं न कहीं, 'मां' की यही छवि, हमारे दिमाग में बैठ गई है। मां के बारे में कई ऐसे स्टीरियोटाइप्स हैं, जो सालों से हमारे दिमाग में बैठाए गए हैं। हमारी कैंपेन, 'Maa Beyond Stereotypes', इसी बारे में है। चलिए आज आपको बताते हैं कि हमारे टीवी सीरियल्स के हिसाब से भारतीय मां के क्या फर्ज होते हैं?
बच्चों के लिए खाना बनाना
अरे..अरे...इसे पढ़ते ही आप मुझे जज मत करने लगिएगा कि भला मैं कैसी बेतुकी बात कर रही हूं! आखिर, खाना बनाना तो मां का काम ही होता है...अब उसमें क्या गलत दिखाया जा रहा है। देखिए, मैं यह बिल्कुल नहीं कह रही हूं कि मां का बच्चों के लिए खाना बनाना गलत है। मुझे खुद अपनी मां के हाथ का बनाया खाना, बेहद पसंद है। लेकिन, मां के प्यार को एक ढर्रे में बांधना सही नहीं है। हमारे डेली सोप में मां की दुनिया किचन के इर्द-गिर्द ही दिखाई जाती है। यहां तक कि यह दिखाने से भी गुरेज नहीं किया जाता है कि अगर कोई मां खाना बनाना नहीं जानती है, तो वह अच्छी मां है ही नहीं।
बच्चों के घर लौटने का इंतजार करना
यह भी हिन्दी टीवी सीरियल्स में दिखाई गई 'क्लासिक मां' के कामों में से एक हैं। जब तक बच्चा घर न आ जाए, मां पलकें बिछाकर उसका इंतजार करती हुई ही नजर आती है। अपनी भूख, प्यास और नींद सब छोड़कर, मां सब दरवाजें पर खड़ी ही नजर आती है। सबसे कमाल की बात यह है कि इसके बदले मां को कोई क्रेडिट ही नहीं मिलता है क्योंकि हमारी कंडीशनिंग ही ऐसी की गई है।
बच्चों की गलती पर परदा डालना
"मेरा राजा बेटा तो गलत हो ही नहीं सकता है...चाहे पूरी दुनिया गलत क्यों न हो जाए, मेरा बेटा तो बिल्कुल सही है।" ज्यादातर डेली सोप्स में मां की इमेज कुछ ऐसी ही दिखाई जाती है। अपने बेटे को गलती पर मां खुद भी आंखें मूंद लेती हैं और पूरी दुनिया के आगे भी व्हाइट वॉश लेकर उस गलती को साफ करने में लग जाती है। लेकिन, क्या वाकई असल जिंदगी में मां ऐसी ही होती हैं? मेरे मानें तो बिल्कुल नहीं...क्योंकि मेरी मां ने तो बेशक मुझपर बेपनाह प्यार और दुलार लुटाया है। लेकिन, मेरी गलती पर मुझे डांटा भी है और समझाया भी है। वैसे भी देसी मां के पास तो अपनी बात समझाने और मनाने के लिए, सैकड़ों हथियार होते हैं।
अपनी दुनिया बच्चों के इर्द-गिर्द ही मान लेना
टीवी सीरियल्स में मां की परिभाषा ही कुछ इस तरह लिखी गई है और कहीं न कहीं, हमारे समाज में भी मां से यही अपेक्षाएं रखी जाती हैं। एक बार फिर यह उन्हीं स्टीरियोटाइप चीजों में से एक है, जिनकी हम बात कर रहे हैं। टीवी सीरियल्स में मां का अपने सपनों को भुला देना, बच्चों के इर्द-गिर्द ही अपना जहां बसा लेना बहुत कॉमन दिखाया जाता है। लेकिन, क्या एक 'मां' के 'अच्छी मां' बनने के लिए, अपने बारे में सोचना छोड़ देना जरूरी है?
बच्चों के लिए आंसू बहाना
भले ही आज टीवी और फिल्मों में मां की भूमिका में काफी बदलाव आया हो। लेकिन, एक वक्त तक, बच्चों के लिए आंसू बहाना, डेली सोप की मां का फेवरेट काम हुआ करता था। एक 'बेचारी मां' की छवि, सीरियल्स में इस कदर दिखाई गई है कि कहीं न कहीं, लोगों ने उस इमेज को सच मान लिया है। 'मां' का आंसू बहाना और बच्चों का उन आंसुओं का मजाक बनाते हुए कहना, "क्या मां...तुम तो हमेशा रोती ही रहती हो...।" सीरियल्स में काफी जोर-शोर से दिखाया जाता रहा है।
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सब कुछ चुपचाप सह लेना
टीवी की दुनिया के हिसाब से, हर बात को मुंह बंद कर, चुपचाप सह लेना भी इंडियन क्लासिक मां का एक फर्ज है। मतलब चाहे सास कुछ कहे, पति कुछ कहे या बच्चे मां से ऊंची आवाज में बात करें, मां न जाने कितने सालों से और कितने सीरियल्स में अपमान का घूंट पीती हुई ही दिखाई गई है। 'मां..तुम्हें तो छुरी-कांटे से खाना भी नहीं आता' या 'मां..नाश्ता बनाकर किचन में ही रख देना..मैं खुद ले लूंगा पर तुम मेरे दोस्तों के सामने मत आना...' कहिए, आपने भी डेली सोप्स में ऐसे डायलॉग्स सुने हैं ना!
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