बेटी बांसुरी ने किया सुषमा स्वराज का अंतिम संस्कार, समाज की बदली सोच का आईना

समाज में महिलाओं की बढ़ती भूमिका का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे परिवार के मृतकों का अंतिम संस्कार भी करने लगती हैं, जिसे पुराने समय से ही वर्जित माना जाता रहा है। 

 
sushma swaraj daughter bansuri main

माना जाता है कि पेरेंट्स और बेटियों का स्नेह दुनिया में किसी भी रिश्ते से बढ़कर है। जब महिलाओं के आत्मविश्वासी होने और अपनी जिंदगी से जुड़े फैसले लेने की बारी आती है तो पेरेंट्स का उन पर गहरा प्रभाव होता है। लेकिन पेरेंट्स की मौत हो जाने पर बेटियों को लंबे समय तक अंतिम संस्कार में हिस्सा लिए जाने से रोक दिया जाता था। हमारे समाज में बेटियां होने पर कई तरह से अफसोस जताया जाता था और ये सवाल खड़े किए जाते थे कि मरने पर पिता की चिता को मुखाग्नि कौन देगा। लेकिन समय के साथ सारी रूढ़ियां खत्म होती जा रही हैं। आज महिलाएं पुरुषों की तरह हर काम में अपनी भागेदारी निभा रही हैं। समाज में उनकी बढ़ती भूमिका का ही नतीजा है कि वे अपने पिता का अंतिम संस्कार भी करने लगी हैं। भारत की पूर्व विदेश मंत्री और भारतीय जनता पार्टी की चर्चित नेता रहीं सुषमा स्वराज आज पंचतत्व में विलीन हो गई हैं। लोधी रोड स्थित शवदाह गृह पर बेटी बांसुरी ने सुषमा स्वराज को मुखाग्नि दी। सुषमा स्वराज को श्रद्धांजलि और अंतिम विदाई देने के लिए वहां पीएम नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी, अमित शाह, राजनाथ सिंह के साथ कई गणमान्य नेता मौजूद रहे। गौरतलब है कि देर रात सुषमा स्वराज का दिल का दौरा पड़ने से 67 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।

atal bihari vajpayee last rites main

एक साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी का एम्स में लंबी बीमारी के बाद निधन हुआ तो उनकी गोद ली हुई बेटी नमिता भट्टाचार्य ने उनका अंतिम संस्कार किया था। नमिता अटल बिहारी वाजपेयी के कॉलेज की जमाने की दोस्‍त राजकुमारी कॉल की बेटी हैं, जिन्हें एक समय में उन्होंने गोद लिया था।

सिर्फ नमिता ही नहीं पढ़े-लिखे समाज से ताल्लुक रखने वाली कई बेटियां अपने परिवार के मृतकों का अंतिम संस्कार करती नजर आती हैं। पिछले साल जुलाई में एक टेलर की मौत हुई, जिसकी अंतिम इच्छा की थी कि उनकी बेटियां उनकी अर्थी को कंधा दें। बेटियों ने भी अपने पिता का सम्मान करते हुए धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ उनका अंतिम संस्कार किया। इसी तरह उत्तरी गुजरात के एक स्कूल क्लर्क का उनकी 6 बेटियों ने मिलकर अंतिम संस्कार किया। इन सभी परिवारों में एक बात समान थी और वो यह कि ये सोच से काफी खुले मिजाज के थे उन्हें इस बात के लिए शोक करने की कतई जरूरत नहीं थी कि घर में बेटी पैदा हुई है तो पिता की चिता को आग कौन देगा।

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atal with namita bhattacharya inside

अंतिम संस्कार से दूर रखने की तार्किक वजहें

माना जाता है कि किसी के मरने से घर अशुद्ध हो जाता है। इसीलिए जब मृतक के शव को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जाता है तो घर की महिलाओं की यह जिम्मेदारी होती है कि वे पीछे से घर को संभालें और उसकी अच्छी तरह से सफाई करें। यदि महिलाएं श्मशान जाएं तो यह क्रिया संभव नहीं हो पाएगी।

दूसरी वजह यह है कि जब जब शव जलाया जाता है तो मृतक के शरीर से निकले किटाणु आसपास मौजूद लोगों के शरीर पर चले जाते हैं। इसलिए शमशान से वापस लौटने के बाद सबसे पहले स्नान किया जाता है। माना जाता है कि पुरुषों के बाल छोटे-छोटे होने की वजह से उनके ऊपर से कीटाणु नहाने के दौरान आसानी से निकल जाते हैं, लेकिन महिलाओं के बाल लंबे से ये कीटाणु निकल नहीं पाते।

शास्त्रों में नहीं लिखी है अंतिम संस्कार की मनाही की बात

भले ही महिलाओं के अंतिम संस्कार में शामिल ना किए जाने के पीछे कुछ वाजिब तर्क दिए जाएं लेकिन शायद आपको यह जानकर हैरानी हो कि प्राचीन हिंदू शास्त्रों में कहीं भी नहीं लिखा है कि महिलाओं को श्मशान घाट नहीं जाना चाहिए या मृतक परिजन का अंतिम संस्कार नहीं करना चाहिए। बल्कि प्राचीन ग्रंथों में महिलाओं को काफी प्रगतिशील देखा गया है। इसके बावजूद महिलाओं को अंतिम संस्कार के समय श्मशान घाट पर जाने से रोका जाता है। दरअसल पुराने समय से महिलाओं के लिए एक विशेष प्रकार के नजरिये की वजह से उन्हें अंतिम संस्कार में जाने से रोका जाता था, जिसमें समय के साथ बदलाव को स्वीकार किया जा रहा है।

महिलाएं हो गई हैं मेंटली स्ट्रॉन्ग

महिलाओं को कुदरती तौर पर सॉफ्ट हार्टेड माना जाता रहा है और यह भी कहा जाता है कि वे किसी भी बात पर बहुत जल्दी डर जाती हैं। एक तथ्य यह है कि असल में अंतिम संस्कार के बाद मृत शरीर अकड़ने लगता है जिसके कारण कई बार शव से अजीबोगरीब आवाजें आने लगती हैं। इस कारण महिलाओं के डर जाने, या फिर रोने लगने की बात कही जाती थी, लेकिन समय के साथ चीजें काफी हद तक बदल गई हैं। महिलाएं समाज में बढ़ती भूमिकाओं की वजह से पहले की तुलना में कहीं ज्यादा मजबूत महसूस करती हैं। वे मृतक के दुख से दुखी जरूर होती हैं, लेकिन बदली हुई परिस्थितियों का रियलाइजेशन उन्हें जल्द ही हो जाता है, इसीलिए अंतिम क्रिया को लेकर उनके मन में भय नहीं रहता है और वे समय की मांग के हिसाब से खुद को मानसिक रूप से स्ट्रॉन्ग बनाए रखने में कामयाब होती हैं।

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