बॉलीवुड में बनने वाली ज्यादातर फिल्में लव स्टोरीज ही होती हैं। टिपिकल लव स्टोरीज भी ऐसी होती हैं, जिनमें एक्शन में पुरुष ही नजर आते हैं और महिलाएं सिर्फ सेक्सुअलिटी का प्रतीक बनकर रह जाती हैं। वहीं जब सशक्त महिला किरदारों वाली फिल्में बड़े पर्दे पर आती हैं, जिनमें महिलाओं की दोस्ती को बेहतरीन तरीके से दिखाया जाता है, तो उसे चिक फ्लिक्स बताकर उसकी अहमियत कम करने की कोशिश की जाती है। इससे ये संदेश जाता है कि ऐसी फिल्में सिर्फ एक खास दर्शक वर्ग को ही अपील करेंगी और जिसे बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। लेकिन इन बातों से वुमेन सेंट्रिक फिल्मों का महत्व कम नहीं हो जाता।
हालांकि मेल सेंट्रिक फिल्मों की तुलना में महिला प्रधान फिल्में कम ही देखने को मिलती हैं, लेकिन उनमें कुछ इतनी महत्वपूर्ण हैं कि वे बॉलीवुड में मील का पत्थर साबित हुई हैं। इन फिल्मों ने न सिर्फ महिलाओं के मुद्दे को पूरी संवेदनशीलता से उठाया बल्कि उस पर इतनी सशक्त कहानी गढ़ी कि वह दर्शकों के जेहन में हमेशा के लिए उतर गई और हालात की गंभीरता पर सोचने के लिए उन्हें मजबूर किया। अर्थ और बाजार जैसी बीते दौर की फिल्में जहां महिलाओं की जिंदगी के उतार-चढ़ावों और विसंगतियों की तस्वीर हू-ब-हू पेश करने के लिए जानी जाती हैं वहीं आज के दौर में भी डियर जिंदगी, मर्दानी, मारगरीटा विद ए स्ट्रॉ, पीकू, कहानी, डोर, चांदनी बार जैसी कई महिला प्रधान फिल्मों का जिक्र किया जा सकता है, जो समय के साथ महिलाओं की जिंदगी में आने वाले बदलाव और चुनौतियों की कहानी कहती हैं और उन्हें नए अवतार में भी पेश करती हैं। आइए जानें ऐसी ही कुछ फिल्मों के बारे में-
पिता के साथ स्पेशल रिलेशनशिप दिखाती है पीकू
अगर पीकू की बात करें तो इस फिल्म में बेटी (दीपिका पादुकोण) और पिता (अमिताभ बच्चन) के रिश्ते को बेहद खूबसूरती के साथ पेश किया गया है। इसे कॉन्स्टिपेशन जैसी आम समस्या के साथ जोड़ा गया जिससे लगभग हर कोई रिलेट कर सकता है। एक महिला किस तरह से अपने पिता का खयाल रखते हुए अपने पार्टनर का साथ निभाती है, यह इस फिल्म में बहुत सहजता से दिखाया गया है। यह एक ऐसा सच है जिसे आज के दौर की प्रोग्रेसिव महिलाएं चरितार्थ भी कर रही हैं।
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कहानी के सस्पेंस ने किया रोमांचित
इस सस्पेंस थ्रिलर में विद्या बालन ने जिस खूबसूरती के साथ एक जासूस का किरदार निभाया, वह ज्यादातर मेल सेंट्रिक फिल्मों में ही देखने को मिलता है। जेम्स बॉन्ड, शरलॉक होम्स और अपने देसी लोकप्रिय किरदार ब्योमकेश बक्शी को टक्कर देने वाले विद्या के किरदार ने जिस तरह से फिल्म में अलग-अलग कड़ियों को जोड़ा और आखिर में पूरी बाजी को पलट कर रख दिया वह दर्शकों को पूरी तरह रोमांचित कर गया। कहना होगा कि ऐसी फिल्में न सिर्फ दर्शकों को एक ब्रेक देती हैं बल्कि महिला सशक्तीकरण में भी अहम भूमिका निभाती हैं
न टूटे जिंदगी की डोर
पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को आज भी समाज में कम महत्व दिया जाता है और यह बात इस फिल्म में बहुत रियलिस्टक तरीके से दिखाई गई है। एक महिला के विधवा होने के बाद किस तरह से समाज उसे अहमियत देना कम कर देता है, यह भी इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। पति की मौत किसी भी महिला के लिए बहुत बड़ा सदमा होता है, लेकिन इस फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह तमाम मुश्किलों के बावजूद हिम्मत रखने से महिलाएं वापस अपनी जिंदगी की डोर थामकर आगे बढ़ सकती हैं।
बार गर्ल्स की कहानी कहती चांदनी बार
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