मेरा नाम आरती है। मम्मी बताती है, कि मेरे नाम के ऊपर दादी ने बड़ा तांडव मचाया था। दरअसल मम्मी मेरा नाम सुहासिनी रखना चाहती थी, पापा को भी नाम कुछ हटके लगा था। सुहासिनी …हां अच्छा नाम होता मेरा। मम्मी बताती है कि डिलीवरी के बाद जब उन्होंने मुझे गोद में उठाया, तो मैं उन्हें देख कर मुस्कुरायी थी। बस तभी उन्होंने सोच लिया था कि मेरा नाम सुहासिनी रखेंगी। पर दादी अड़ गयी। उनके हिसाब से आरती पावन और पवित्र नाम है। मम्मी को हार माननी पड़ी। मैं उनकी जगह होती तो कभी गिवअप नहीं करती।
“जब अपनी सास से माथा पच्ची करनी पड़ेगी ना, तब पता चलेगा,” मम्मी मुस्कुरा के अक्सर कहती हैं।
“मैंने तो शादी ही नहीं करनी है,” मैं भी ठिठोली में कह दिया करती हूं।
पहले तो सब मेरी इस बात पर हंस देते, पर आजकल ये बात बड़ा ही गंभीर मुद्दा बन गयी हैं। मुद्दा, यानि मेरी शादी।
“इकतीसवां साल लगने वाला हैं, कौन करेगा इससे शादी?” दादी पूछती ऐसे हैं, जैसे मम्मी सर्वज्ञता बैठी हैं। अरे, ये सवाल तो उन्हें भी खाये जा रहा है।
“और रखो मेरा नाम आरती! पवित्र और पावन, मैं तो ना पवित्र ही रह जाउंगी ज़िन्दगी भर”, दादी को चिढ़ाना मेरा फेवरेट काम हैं।
लेकिन दादी भी कम नहीं, “आरती नाम हैं तो क्या प्रसाद समझकर सब गटकना हैं तुझे?”, दादी ने मेरे सामने रखी हुई खाने की थाली हटा दी। “कम खा, उम्र के साथ-साथ वजन भी बढ़ता जा रहा हैं,” ये कह कर दादी अपने एक हाथ से माला जपते हुए और दूसरे से अपने मोबाइल के बटन दबाते हुए, उठ गयी। मैंने थाली वापस खींच ली, “आपने ही तो कहां हैं कि खाना बर्बाद करना पाप है।”
ये कुछ बातें ऐसी हैं जो रोज़ाना, इसी क्रम से, मेरे ऑफिस से घर लौटने के बाद होती हैं। अब मैंने इसे स्वीकार भी कर लिया हैं, एक तरह से अच्छा हैं कि ऑफिस की चिक-चिक से एकदम दिमाग हट जाता हैं…और दादी की चिक-चिक में लग जाता हैं। कहानी हर दिन की! लेकिन आज की बात अलग हैं, आज दादी कुछ ज़्यादा ही नाराज़ हैं। एक रिश्ता आया था, पर बात कुछ बनी नहीं। लड़के वाले अब दादी का फ़ोन तक नहीं उठा रहे हैं। कारण क्या हैं पता नहीं, पर दादी को लगता हैं कि हो ना हो इसके पीछे मेरा वजन ही हैं। अगर दादी सही हैं, तो अच्छा ही हुआ वो ही पीछे हट गए।
“अगर मुझसे मिलने, मुझसे बात करने के बाद वो सिर्फ मेरे वेट से मुझे जज करेंगे तो ऐसे परिवार से मुझे रिश्ता ही नहीं करना मम्मी,” मैंने समझते हुए बोला।
मम्मी समझती हैं लेकिन वो प्रैक्टिकल हैं, “ये किताबी बातें हैं आरती, रिश्ते में नाक नक्श, लम्बाई वजन, ये ही देखा जाता हैं। लड़की देखने आना का मकसद ही यही होता हैं।”
“इसीलिए मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता,” में थोड़ी रुआंसी हो गई।
“अब हमने भी तो लड़के की सैलरी, करियर देखा की नहीं? तू जिम ज्वाइन कर लें”
मैं चुप रही।
“शीतल के साथ जा रही थी, कितना रिड्यूस कर लिया था तूने। उसकी शादी हुई तो तूने भी जाना छोड़ दिया।” मम्मी प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेर रही थी, पर मुझे गुस्सा आ रहा था। BA के आखिरी साल से लेकर आज तक ना जाने कितने रिश्ते, कितने लड़के, कितने लड़कों की मां या बहनों से मेरा पाला पड़ चुका हैं। कहीं बात होती है तो कुंडली नहीं मिलती है, कहीं कुंडली मिलती है तो बात नहीं बनती। कहीं लड़का सिर्फ अपने मां-बाप को नाराज़ ना करने के लिए मिल लेता तो कहीं “गिफ्ट्स” की डिमांड पहली मीटिंग में ही रख दी जाती।
मुझे तो लगता था मेरी लाइफ शाहरुख़ की रोमांटिक फिल्मों की तरह होगी…कि एक दिन अचानक ही, किसी ‘अनदेखे अनजाने’से मेरी नज़रें टकराएगी, और दिल ज़ोरों से धड़कने लगेगा, एक लम्हां एक सदी सा गुज़रेगा, बैकग्राउंड में लता मंगेशकर की आवाज़ में 'लालालाला' चल रहा होगा, और जैसे ही मैं आगे चलने लगूंगी एक हवा का झोंका मेरे लाल दुप्पट्टे को उसके चेहरे के आगे सरका देगा। वो स्लो मोशन में चेहरे से दुपट्टा हटाएगा और बोलेगा…
"हर दिन नया सिय्यपा"
हैं? रूकावट के लिए खेद हैं, पापा घर आ गए थे...एक हाथ में तरकारी का थैला था, दूसरे में फाइलें।
"दे दी माताजी ने खबर?" मम्मी ने उठकर हाथ से थैला ले लिया।
"बार-बार फ़ोन करके शेखर जी को भी परेशान कर रखा है, मुझे ही बात करनी पड़ेगी। माताजी हैं कहां?" पापा जल्दी में जूते उतर रहे थे, पर सिर पर हेलमेट अभी भी ताज की तरह रखा हुआ था।
"पापा, पानी" मुस्कुराकर मैंने पापा को पानी का गिलास दे दिया।
मुझे देखते ही पापा की झुंझलाहट गायब हो जाती है, वो बोले "प्रेजेंटेशन कैसी रही?"
"फर्स्ट क्लास पापा"
"एज एक्सपेक्टेड एंड एज प्रिडिक्टेड "
"लो अब इसका क्रेडिट आप क्यों लूट रहे हो? "मम्मी भी कुछ कम नहीं हैं, हम सब हंस पड़े। पापा आते ही माहौल एकदम लाइट कर देते हैं।
"चलो अब में भी अपनी प्रेजेंटेशन दे आऊं माताजी को..." पापा मुस्कुरा के बोले
"पापा, आई एम सॉरी", मुझे तो पता था कि दादी के सामने पापा की कोई भी दलील टिकने वाली नहीं है।
"अरे तू क्यों सॉरी बोल रही है? सॉरी तो शेखर जी ने मुझे बोला है, बोल रहे थे बेटा उनके हाथ से निकल रखा है, नहीं तो आरती जैसी लड़की को कौन मना कर सकता है।"
"अच्छा?" मम्मी को जैसे मुझ पर फिर से कॉन्फिडेंस आ गया हो..
"चलो, ये तो मान गयीं पापा, अब आप यही पैतरा दादी पर आज़मा कर देखो"
" चल-चल, पैतरा है पापा का? कुछ भी बोलती है!" पापा दादी के कमरे की ओर बढ़ने लगे।
"पापा!"
"क्या है?"
"आल द बेस्ट!"
पापा ने सिर हिलाया, मुस्कुराया और थम्ब्स अप करके मुझे अपना कॉन्फिडेंस दिखाया।
"पापा!"
"क्यों टोके जा रही है उनको?" मम्मी खीज उठी
"अरे पापा हेलमेट क्या दादी की पिटाई के डर से पहने हो?"
मम्मी ने पापा को देखा, अभी भी शहंशाह का ताज सिर पर ही विराजमान था। एक सेकंड हम सब एक दूसरे हो देखते रहे, और फिर अचानक ऐसी राक्षसी हंसी हमारे ड्राइंगरूम में गूंजी की दुख, परेशानी, निराशा और चिंता, सब कोसों दूर भाग खड़े हुए।
PS: अपने दिन के कुछ ख़ास लम्हें में, आपकी दोस्त, आरती अपनी डायरी में दर्ज़ करती हूं। और इन डायरी के पन्नों के ज़रिये, मैं अपनी ज़िन्दगी के ख़ास पल आपके साथ बांट रही हूं। हर मंगलवार, HerZindagi पर मुझसे जुड़िये। मुझे ऐसा लगता है कि मुझे आपके मशवरे, आपकी राय और आपके साथ की ज़रुरत पड़ती रहेगी, तो बोलिये क्या आप मेरे साथ है?
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