देश की उस जाबांज महिला को सलाम, जिसने मानवता के हित में 16 साल संघर्ष किया। हम बात कर रहे हैं देश की आयरन लेडी इरोम चानू शर्मिला की, जिन्होंने मणिपुर में 10 बेगुनाहों के बारे जाने के बाद ऐसा कदम उठाया, जिसके लिए साहस और दृढ़ता की जरूरत होती है। शर्मिला ने मणिपुर सहित पूर्वोत्तर राज्यों में लागू 'आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट' (AFSPA) को खत्म करने के लिए भूख हड़ताल कर दी। दरअसल इस कानून के तहत सुरक्षा बलों को किसी को भी देखते ही गोली मारने या बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार था। इस कानून को खत्म किए जाने की मांग को लेकर इरोम लगातार भूख हड़ताल पर रहीं।
अनशन करने पर शर्मिला को आत्महत्या करने के प्रयास में गिरफ्तार कर लिया गया। चूंकि इस तरह की गिरफ्तारी में सालभर से ज्यादा किसी को कैद में नहीं रखा जा सकता, इसीलिए हर साल शर्मिला को रिहा किया जाता था और अगले ही दिन गिरफ्तार कर लिया जाता था। इरोम को जीवित रखने के लिए उन्हें जबरन नाक में लगी नली के जरिए खाना दिया जाता था। इस दौरान पोरोपट के सरकारी हॉस्पिटल के एक कमरे को उनकी जेल बना दिया गया था। लंबे समय तक भूख हड़ताल पर रहने के बाद आखिरकार उन्होंने साल 2016 में अपनी मांग पूरी हुए बिना अनशन खत्म कर दिया।
इरोम ने जो कदम उठाया, उसके लिए बहुत स्ट्रॉन्ग होने की जरूरत होती है। इरोम शर्मिला ऐसी इंस्पायरिंग लेडी हैं, जिनसे देश की हर महिला अपनी जिंदगी में निडर और आत्मविश्वासी होने की इंस्पिरेशन ले सकती है। आज इरोम शर्मिला के जन्मदिन के मौके पर आइए जानते हैं कि बचपन में शर्मिला कैसे हालात से गुजरीं, कैसे उन्होंने मौत से लड़कर जिंदगी को चुना और क्यों वह मणिपुर में सभी की बेटी कहलाईं-
अपने किचन के छोटे से हिस्से, जो आंशिक रूप से घास-फूस का बना था, में सखी (शर्मिला की मां) एक गैस स्टोव के किनारे छोटे से लकड़ी के स्टूल पर बैठी थीं। मिट्टी के बर्तन के नीचे आग जल रही थी। उसके भीतर चावल कुछ हर्ब्स, मुलायम सी जड़ी-बूटियों और नींबू के छिलकों के साथ उबल रहे थे। जैसे-जैसे वह एक-एक करके तिनकों को आगे बढ़ा रही थीं, वैसे-वैसे चूल्हा की आग की रोशनी सखी के चेहरे पर बढ़ती जाती थी। उनका चेहरा बड़ा सा था। हवा और धूप में उनकी त्वचा कुंभला गई थी। वह चेहरा खूबसूरत नहीं था, लेकिन उसमें एक किस्म की दृढ़ता थी। यह महिला थोड़ी गुस्सैल थी, लेकिन वह दिल से उतनी ही इमोशनल पत्नी, मां और दादी थी।
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उसके नाती-पोते किचन के दरवाजे पर खड़े हैं। कुछ भूख से तड़प रहे थे, कुछ भूख के मारे अपनी उंगलियां चबा रहे थे। उन्हें बहलाया जा रहा था, लेकिन अब उनकी भूख बर्दाश्त से बाहर हो रही थी। इसीलिए वे जिस हाल में थे, उनकी मां ने उन्हें वैसे ही छोड़ दिया। बच्चों के रोने का मां पर कोई असर नहीं हो रहा था, जैसे कि पहले हुआ करता था। पहले जब बच्चे रोते थे तो वह अपना सब काम छोड़कर बच्चे को दूध पिलाने लगती थी और बच्चा शांत हो जाता था। चूंकि हर दूसरे साल सखी गर्भवती हो जाती थीं, ऐसे में उनका शरीर पूरी तरह से कमजोर हो चुका था। जब तक उनका नौंवा बच्चा हुआ, तब तक उनका दूध पूरी तरह से सूख चुका था। अपनी सबसे छोटी बेटी शर्मिला को पिलाने के लिए उनके शरीर में दूध ही नहीं था। इस कारण सखी अपने घर आने वाली यंग मदर्स से विनती करती थीं कि उनकी दुधमुही बच्ची को दूध पिला दें। इसके बदले वह उन्हें जाने से पहले कुछ सब्जियां दे दिया करती थीं। कई बार भाई सिंहजीत उन्हें अपनी गोदी में झुलाते हुए ले जाता था और दरवाजे-दरवाजे जाकर पूछता था कि कोई मां उनकी छोटी बहन को दूध पिला देगी।
छोटी बच्ची किसी भी इमा की गोद में चुपचाप लेटी रहती, उसकी आंखें बंद ही रहतीं, जैसे कि किसी पपी (कुत्ते का बच्चा) की रहती हैं। जब शर्मिला फीड कर लेती तो उन्हें वापस भेज दिया जाता था और सिंहजीत उन्हें घर ले आता था और वह शांति से सो जाती थी। यह कहानी इतनी बार सुनाई जा चुकी है कि यह अपने आप में लीजेंड बन चुकी है।
(यह गद्यांश अनुभा भोसले की किताब 'मदर, वेयर इस माई कंट्री' से लिया गया है, जो साल 2016 में स्पीकिंग टाइगर की तरफ से प्रकाशित की गई।)
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