मां और सिनेमा के बीच हमेशा एक खास रिश्ता रहा है। हम जब भी फिल्मों में मांओं को देखते हैं, तो अपनी मां भी याद आ जाती है। फिल्मों में उनके डायलॉग्स भी ऐसे रहते हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि अरे ये तो अपनी मम्मी भी हमें बोलती रहती है।
एक वक्त था जब मां को हमेशा बेबस और लाचार दिखाया जाता था। वह अक्सर रोती और गिड़गिड़ाती हुई नजर आती थी। तब लगता है कि क्या सच में मां इतनी ही बेबस होती है। फिर समय बदला, तो हिंदी सिनेमा ने शायद काफी सोच-विचार के बाद मां के डिपिक्शन को बदला। आज इतने सालों बाद, हमने सिनेमा में मां के ऐसे किरदार भी देखे, जिन्हें देखकर लगा कि वाह! ऐसी ही होती है मां।
अपने बच्चों के लिए जो जान दे सकती है, तो किसी की जान एक बराबर करने में सोचेगी भी नहीं। मां की भूमिकाएं पहले से ज्यादा दमदार बनी और एक बड़ा बदलाव हमने बॉलीवुड की मांओं में देखा। आइए आप आपको भी उन किरदारों से मिलाएं, जिन्होंने मां के रोल्स को बदलने में मदद की।
फिल्म 'मिमी'
पुरानी जमाने की फिल्मों में मां को रोते हुए ही दिखाया है। अगर वह एक सिंगल मां है, तो फिर उसके नसीब में सिर्फ किसी के घर बर्तन धोना या कपड़े सिलना ही लिखा है। हालांकि, आज इस नजरिये में भी बदलाव आया है। अब आप फिल्म 'मिमी' में सिंगल मॉम का किरदार निभा रही कृति सैनन को लीजिए।
मिमी एक्ट्रेस बनना चाहती थी। पैसे कमाने के लिए वह सरोगेट मदर बनती है, लेकिन लास्ट मोमेंट में फिरंगी कपल बच्चे को अपनाने से मना कर देता है। मगर मिमी हार नहीं मानती। वह अपने सच को बहादुरी से जीती है। हालांकि, एक्ट्रेस न बनने की कसक उसके दिल में रहती है, लेकिन इसका जरा भी मलाल उसे नहीं होता। अगर यह फिल्म पुराने जमाने में बनी होती, तो एक अविवाहित महिला के मां बनने पर न जाने कितने लांछन लगा दिए होते। इस फिल्म ने सरोगेसी जैसे मुद्दे पर भी लोगों की राय बदली।
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फिल्म 'मॉम'
'इंग्लिश विंग्लिश' के बाद श्रीदेवी की यह दूसरी फिल्म थी, जिसमें उन्होंने बड़ा गजब का किरदार निभाया था। पुराने समय की मां अपने बच्चे को दुख में देखकर मंदिर में जाकर भगवान के आगे रोती हुई दिखाई जाती थी। अब बड़ा बदलाव आया है। कहते हैं कि मां अपने बच्चे पर एक आंच आने नहीं देती।
ऐसा ही श्री देवी ने इस फिल्म में दिखाया था। उनके किरदार देवकी को एक शांत मां के रूप में दिखाया है। देवकी की स्टेप डॉटर को एक पार्टी में कुछ लड़के परेशान करते हैं। बड़े घर के होने के कारण उन्हें कानून छोड़ देता है, लेकिन शांत स्वभाव की देवकी अपनी बेटी को टॉर्चर होते हुए देख नहीं पाती। वह उन बच्चों का जीवन बर्बाद कर देने की सोचती है और आखिर तक हर गुनेहगार को सजा देती है।
फिल्म 'खूबसूरत'
"जब बेटी बड़ी हो जाती है, तो मां की सहेली बन जाती है"... यह डायलॉग सुना हुआ लग रहा है न? असल जिंदगी में भी यही कहा जाता है। मगर पुराने जमाने की फिल्मों में ऐसा नहीं देखा गया कभी। मगर साल 2014 में आई सोनम कपूर और फवाद खान की फिल्म ने इस नजरिये को बदला और हमने जाना कि मां हमारी बेस्ट फ्रेंड भी हो सकती है। हालांकि, ऐसी कई फिल्में बनी हैं जहां मां और बेटी को दोस्त के रूप में दिखाया गया है, लेकिन यह फिल्म कास क्यों है, मैं बताती हूं।
मेरे लिए यह कल्चरल शॉक था जब सोनम कपूर अपनी मां को नाम से बुलाती है। ऐसा हमने कभी नहीं किया, लेकिन एक फैमिली के रूप में सोनम के परिवार को बहुत करीब दिखाया गया था। किरण खेर ने उनकी मां का रोल निभाया था, जो टिपिकल मांओं की तरह अपनी बेटी की शादी के लिए परेशान है। मगर इसके साथ ही, वह अपनी बेटी की बेस्ट फ्रेंड हैं। वह अपनी बेटी से बेझिझक लड़कों के बारे में बात करती है और उसे एडवाइस भी देती है। बेटी के बॉयफ्रेंड के बारे में पूछती है और बेटी का दिल टूटने पर बॉयफ्रेंड की बुराई भी करती है, बिल्कुल वैसे जैसे बेस्टफ्रेंड्स करते हैं।
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फिल्म 'डार्लिंग्स'
यह फिल्म तो आपने भी देखी होगी। आलिया भट्ट, शेफाली शाह और विजय राज की जबरदस्त एक्टिंग ने इस फिल्म को हिट बनाया था। मेरे लिए इस फिल्म का सबसे दमदार कैरेक्टर शेफाली शाह थी। शेफाली शाह ने आलिया भट्ट की मां का किरदार निभाया था। उन्होंने एक ऐसी मां का किरदार निभाया, जो अपनी बेटी को उसके टॉक्सिक बॉयफ्रेंड के बारे में हजार बार समझाती है।
बेटी प्यार में शादी कर लेती है, लेकिन फिर डोमेस्टिक वॉयलेंस का शिकार होती है। ऐसे मामले में अक्सर लड़कियों को यह सलाह दी जाती है कि ऐसे झगड़े तो हर घर में होते हैं, संभालने की कोशिश करो। मगर शेफाली शाह का किरदार अपनी बेटी को इस शादी से निकलने के लिए समझाता है। वह जब भी अपनी बेटी के शरीर पर मार के निशान देखती है, तो उसे अपने पति के खिलाफ शिकायत करने के लिए कहती है। हर कदम पर वह बेटी का साथ देती है।
सिनेमाई दृष्टिकोण में मां के किरदारों में बड़ा परिवर्तन आया है। वह दुखी आत्मा से एक ऐसी नायिका के रूप में विकसित हुई है जो स्वतंत्र और कुशल है। इसके साथ ही यह भी साफ बयां हुआ कि आदर्श मां होना एक मिथक है। आज मांओं की बदलती भूमिकाएं कई वर्जनाओं को तोड़ती और रूढ़िवादिता से लड़ती है।
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