हर मां अपने बच्चे के लिए बहुत केयरिंग होती है, उसकी छोटी-छोटी चीजों की फिक्र करती है, दिन-रात उसे चिंता रहती है कि उसका बेटा सकुशल रहे और उसे जिंदगी की सारी खुशियां मिलें। मां अपने बच्चे की खुशी के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने में भी पीछे नहीं हटती। लेकिन उस मां का हाल कैसा होगा, जिसका जवाब बेटा बहुत वक्त से घर ना आया हो और जिसकी चिंता में व्याकुल मां को रातों में नींद भी ना आती हो। ऐसी मां को जब अपने बेटे के बारे में दुख भरी खबर मिले, तो उस पर कैसे दुखों का पहाड़ टूटता होगा। एक मां कैसे अपने ऊपर टूटे दुख के पहाड़ का सामना करती है और बहुत दूर जा चुके बेटे की छोटी-छोटी खुशनुमा यादों में खुद को सराबोर कर देते है-यह सबकुछ आंखों के सामने सजीव हो उठता है '1084 वें की मां' पढ़कर। यह कालजयी उपन्यास महाश्वेता देवी की उन उत्कृष्ट रचनाओं में से एक रहा है, जिसमें एक मां के दर्द के साथ उस विशेष समय काल और परिस्थितियों की भी झलक मिलती है, जिससे हमारा समाज उन दिनों गुजर रहा था। महाश्वेता देवी, जो अपने समय की विख्यात साहित्यकार, समाज सेविका और आंदोलन कर्मी थीं, का जन्मदिन है और इस मौके पर उन्हें हमारी ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि।
देश की आजादी के बाद उम्मीद की गई थी कि हर नागरिक खुद को आजाद महसूस करेगा, उसके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार होगा और उसे समृद्ध होने के लिए पर्याप्त अवसर मिलेंगे। लेकिन 1970 के समय में विकास की राह समाज के हर तबके लिए समान नहीं थी और इसीलिए शोषित और वंचित लोगों के लिए आजादी महसूस करना कहीं ज्यादा मुश्किल था। उन्हें आजाद महसूस करने के लिए बहुत लंबा सफर तय करने की जरूरत थी। इसी असंतोष ने नक्सलवादी आंदोलन को जन्म दिया। संपन्न घर में जन्मा व्रती एक होनहार युवा था। वह अपने समय में चरम पर रहे इस आंदोलन की आहुति की भेंट चढ़ गया और मुर्दाघर में पड़ी लाश 1084 बन गया। बेटा किन तूफानों से गुजर रहा था, यह उसके जीते जी मां ना समझ सकी, लेकिन उसके मरने के बाद धीरे-धीरे उसे समझ आने लगा। यह उपन्यास एक मां के दर्द और एक ऐतिहासिक समय के बारे में बताने के साथ विद्रोह की कहानी भी कहता है। यह उपन्यास उन परिस्थितियों के बारे में विस्तार से बताता है, जो तेज-तर्रार नौजवानों को विद्रोही बनने के लिए मजबूर कर देती हैं। इसे पढ़ते हुए तत्कालीन परिस्थितियों पर गुस्सा आता है, वहीं वंचित और शोषितों के लिए दया का भाव भी उपजता है। महाश्वेता देवी की यह सबसे ज्यादा पसंद की गई कृतियों में से एक है। इसे कई भाषाओं में ट्रांसलेट भी किया गया। गोविंद निहलानी ने इस उपन्यास पर एक फिल्म भी बनाई थी।
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महाश्वेता देवी जी की पारिवारिक जिंदगी बहुत स्थिर नहीं रही। उनकी शादी बहुत लंबी नहीं टिक सकीं। पहले विजन भट्टाचार्य और बाद में असीत गुप्त के साथ उनकी शादीशुदा जिंदगी बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं चली। ढलती उम्र में ही उनके बेट का भी निधन हो गया था, लेकिन घर-परिवार और निजी जिंदगी की तकलीफों का उनकी रचनाओं पर बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता था। वास्तविकता में महाश्वेता देवी हर परिस्थिति को सहज भाव से स्वीकार करती थीं। वह बहुत कम उम्र से ही साहित्य और लेखन जगत से जुड़ गयी थीं। अपनी पहली रचना 'झांसी की रानी' को जिस ढंग से लिखा था, उसमें इतिहास के साथ-साथ नाटकीयता की भी झलक मिलती थी। एक रोचक बात यह कि महाश्वेता देवी जी ने लोकगीत, लोककथा और आम लोगों के गानों को भी अपने साहित्य में स्थान दिया था।
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महाश्वेता देवी जी ने अपनी रचनाएं कोलकाता में रह कर नहीं लिखी गयी थीं। अलग-अलग जगहों पर घटित तमाम घटनाओं के साथ चलते हुए उन्होंने लिखा था। इसीलिए ये कोरी कल्पना नहीं बल्कि अनूठे दस्तावेज थे। उनकी किताबें 'नटी', 'जली थी अग्निशिखा' भी ऐतिहासिक घटनाओं को अपने भीतर समेटे हुए हैं। महाश्वेता देवी जी की रचनाओं में सामाजिक न्याय, किसान, खेतिहर मजदूर और इनका शोषण करने वाले वर्ग के बीच होने वाले संघर्ष की तस्वीर उभरने लगती है।
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महाश्वेता देवी की रचनाओं को पढ़ते हुए जमीनी हकीकत और कड़वे सच इस कदर महसूस होने लगते हैं, जो सीधे-सीधे पाठकों को दिलोदिमाग में उतर जाते हैं और उन्हें गहराई तक प्रभावित करते हैं। महाश्वेता देवी जी जब तक जिंदा रहीं, शोषितों, विद्रोह करने वालों और समाज के पिछड़े वर्ग के लिए काम करती रहीं। उनकी रचनाएं किसी भाषा और संस्कृति के दायरे में बंधी हुई नहीं थीं, बल्कि राज्य की सीमाओं को लांघ कर वे हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराती दिखीं। महाश्वेता देवी जी की कालजयी कृतियों से प्रेरणा लेकर आज की युवा महिलाएं भी ले सकती हैं प्रेरणा और दे सकती हैं अपने जीवन को एक नेक मकसद।
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