भारत दुनियाभर में सबसे अनूठा देश है, क्योंकि भिन्न-भिन्न समुदाय और धर्म का पालन करने वाले लोग यहां सबसे बड़ी तादाद में रहते हैं। सदियों से भारत अपनी सांस्कृतिक विविधता के लिए जाना जाता रहा है। लेकिन धर्म और संप्रदाय के नाम पर लोगों को बांटने वाले भी लंबे समय से राजनीति करते आए हैं। देश में दंगा भड़काने वाली ताकतें भी इसी आधार पर लोगों को बांटने का प्रयास करती रही हैं। इसी सोच को चुनौती दी तमिलनाडु के वेल्लोर जिले की रहने वाली 35 वर्षीय वकील स्नेहा ने, जो आधिकारिक रूप से देश की पहली 'नो कास्ट, नो रिलिजन' सर्टिफिकेट पाने वाली महिला बन गई हैं। यानी स्नेहा ऑफिशियली किसी धर्म या जाति से ताल्लुक नहीं रखतीं। स्नेहा यह सर्टिफिकेट पाने के लिए पिछले नौ साल से स्ट्रगल कर रही थीं।
9 साल की अदालती लड़ाई के बाद मिली जीत
नौ साल की कानूनी लड़ाई के बाद 35 साल की स्नेहा ने आखिरकार यह लड़ाई जीत ली। पेशे से वकील स्नेहा ने एक इंटरव्यू में बताया, 'जब भी मैं फॉर्म भरने के समय जाति और धर्म के बॉक्स का कॉलम देखती थीं तो मुझे अहसास होता था कि मेरी पहचान जाति और धर्म से ही होगी। और इसीलिए मैंने सोचा कि क्यों ना कुछ ऐसा किया जाए, जिससे लोगों की सोच बदले, वे किसी व्यक्ति को उसके मजहब और उसकी जाति से अलग रख कर देखें।' ये भी दिलचस्प बात है कि स्नेहा स्कूल समय से ही जाति, धर्म का कॉलम खाली छोड़ देती थीं। उनके हर प्रमाण पत्र में जाति और धर्म का कॉलम खाली रहा है। स्नेहा चाहती हैं कि उनकी पहचान सिर्फ भारतीय के रूप में हो।
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अलग सोच ने दिया नया नजरिया
स्नेहा ने 2010 में अपने स्ट्रगल की शुरुआत की थी और इस दौरान उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वजह यह कि आधिकारिक तौर पर देश में कोई ऐसी मिसाल नहीं होने के आधार पर ठुकरा दिया जाता था। लेकिन इस दौरान परिवार ने नेहा की सोच का समर्थन किया और उन्हें अपनी राह पर आगे बढ़ने का हौसला दिया।
हमारे देश में नौकरियों में रिजर्वेशन पाने के लिए कुछ विशेष समुदायों के लोग अक्सर मांग करते रहते हैं, वहीं कुछ धर्म के नाम पर राजनीति को चमकाने का प्रयास करते हैं, उनसे इतर एक भारतीय के तौर पर खुद को पहचाने जाने के लिए स्नेहा का प्रयास सराहनीय है। यह उन करोड़ों भारतीयों को इंस्पायर करता है कि वे जात-पांत और मजहब से ऊपर उठकर खुद को एक भारतीय के तौर पर देखें और देश को गौरवान्वित करने के लिए कदम उठाएं।
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