“तुम वर्किंग मॉम हो…..अरे ऑफिस जाओगी तो बच्चे को कौन संभालेगा।”
“क्या! तुमने बच्चे को संभालने के लिए केयर टेकर रखी है। बताओ इतने छोटे बच्चे को किसी और के हाथों सौंप कर तुम ऑफिस चली जाती हो।”
“अरे मां हो तुम या कसाई। बच्चे को रोता हुआ छोड़ कर ऑफिस जा रही हो।”
“बच्चे तो हमने भी पाले हैं और तब कोई हेल्प करने वाला नहीं होता था। तुम लोगों के तो मजे।”
आप अगर मां हैं, तो इस तरह के ताने आप लोगों ने कई बार अपने पड़ोसियों, रिश्तेदारों या किसी अन्य करीबियों से सुने होंगे। यहां तो बहुत कम बातें लिखी हैं, असल में तो लोगों के पास मुफ्त के ज्ञान का भंडार होता है और वे टाइम पास के लिए लोगों में यह बांटते रहते हैं। खासतौर पर मां को, क्योंकि सबसे कमजोर इस समाज में उसी को समझा जाता है।
हालांकि, यही समाज मां को देवी, शक्ति और सुपर मॉम जैसे शब्दों से संबोधित करता है, मगर इसी समाज की नजरों में मां दिल से कमजोर और भावनाओं में बहने वाली मुरत होती है।
मां से हम सभी के बहुत सारे इमोशन जुड़े होते हैं, मगर मां के इमोशन को समझने की क्षमता हममें नहीं होती है। मां करे भी तो क्या करें। सामाज ने उसकी छवि ही कुछ ऐसी बना रखी है कि उसे केवल हंसकर सब कुछ सहना होता है। कितनी भी दिक्कतें हों, मन हो न हो, शरीर जवाब दे चुका हो मगर मां का मन यही कहता है, “कहीं किसी का कोई काम छूट तो नहीं गया है। ”
“सबकी फरमाइशें पूरी हो गई न”
“मेरी वजह से कोई दुखी तो नहीं हुआ”
सबके बारे में सोचने वाली मां के पास अपने लिए सोचने का वक्त नहीं होता है और अगर भूल से आप से कोई ऐसी औरत टकरा जाए, जो मां होने के बाद भी ‘मी टाइम’ की बात करती हो, जिसके अपने कुछ सपने हों, जो बाहर के तो सारे काम में परफेक्ट हो मगर घर के काम से जी चुराती हो। ऐसी मां को तो हम ‘गुड मदर’ की लिस्ट से बाहर ही कर देते हैं।
अधिकतर लोगों को मां एक स्टीरियोटाइप किरदार में ही अच्छी लगती है। ऐसा केवल रियल लाइफ में नहीं होता है बल्कि रील लाइफ में भी अगर आप किसी बुलंद हौसलों और स्पष्टवादी मां को देख लेते हैं, तो उस किरदार को निभाने वाली सेलिब्रिटी को तो ट्रोल कर डालते हैं।
कुछ एक्सट्रीम केस में तो उस टीवी सीरियल या फिल्म को हम बायकॉट ही कर डालते हैं। शायद यही वजह हैं कि आज भी टीवी सीरियल में मां को जितना सशक्त दिखाना चाहिए उतना नहीं दिखाया जा रहा है। मगर इंडस्ट्री में कुछ सेलिब्रिटीज हैं, जो मां के कमजोर किरदार की बात सुनते ही उस प्रोजेक्ट को करने से इंकार कर देते हैं। इनमें से एक है सुप्रिया शुक्ला। सुप्रिया शुक्ला को आप सभी ने कई फिल्मों, टीवी सीरियल्स, शॉर्ट फिल्मों में देखा होगा। मां की छवि को लेकर लोगों ने जो भ्रम पाल रखें हैं, उसे तोड़ने के लिए सुप्रिया जी हरजिंदगी के #motherbeyondsterotype कैंपेन से जुड़ी और अपने अनुभव हमसे शेयर किए।
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क्या ‘मां’ वाकई जादूगर होती है?
हमने बचपन में परियों की कहानी सुनी होती है और असल जिंदगी में यह किरदार हमारी मां हमारे लिए निभाती है। हमें लगता है कोई कुछ हमारे लिए करे न करें मां तो कर ही देगी। ऐसे में ‘मां’ से कभी चूक हो जाए या वो ख्वाहिशें पूरे नहीं कर पाए तो हमारा गुस्सा भी उसी पर निकलता है। इस विषय पर सुप्रिया जी कहती हैं, 'मां को लोग जादूगर समझते हैं। मां होती भी जादूगर हैं। ईश्वर की तरफ से उसे यह दिव्य शक्ति प्राप्त होती है कि वो अपने बच्चे के मन को समझ जाती है और दिमाग को पढ़ लेती है। बस इतना समझ लीजिए कि आपकी मां आपकी इनसाइक्लोपीडिया होती है। वहीं दूसरी तरफ मां के अंदर भी यह भावन बहुत प्रबल होती है कि ‘मैं हूं न’ मैं सब मैनेज कर दूंगी। मगर एक इंसान सब कुछ नहीं कर सकता और सबको खुश नहीं रख सकता है।'
अपने अस्तित्व और पहचान को न मिटाएं?
भारतीय शादियों में जब लड़की विदा हो रही होती है, तो उससे कहा जाता है कि बेटी तुम्हारी डोली तो पिता के घर से उठ रही है मगर अर्थी पति के घर से ही उठनी चाहिए। जीवन और मौत का प्रेशर लेकर तो लड़की ससुराल आती है। ऐसे में जिन लोगों को जानते हुए उसे कुछ वक्त ही होता है, उनकी खुशी के लिए उसे न जाने क्या-क्या करना पड़ता है। बच्चा होने के बाद तो वह खुद को भूल ही जाती है, बस मां, पत्नी और बहू बनकर ही उसका जीवन कट जाता है। आखिर महिलाएं कैसे खुद को केवल रिश्तों की जंजीरों में बांध लेती हैं? सुप्रिया जी कहती हैं, “देखिए कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। इन कुछ लोगों में आपके बहुत करीबी भी होंगे। मगर बेकार की बातों में अपना समय व्यर्थ न करें। आप एक इंडिवीजुअल हैं। इस बात को कभी न भूलें। अपने शौक आपनी पसंद का भी पूरा ख्याल रखें। जिस दिन सभी औरतें ऐसा करने लग जाएंगी, तब मां की यह स्टीरियो टाइप इमेज टूट जाएगी।”
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जवाब देना आना चाहिए?
सुप्रिया जी एक किस्सा बताती हैं, “पहली बेटी के बाद जब दूसरी बेटी हुई तब लोगों ने हमसे कहा कोई बात नहीं अब ट्राई करोगे तो बेटा होगा। मैं तो कुछ नहीं बोली मगर मेरे पति बोल पड़े कि तुमको इससे क्या मतलब कि हमें बेटी हो बेटा हो। तुम मेरे बच्चों के स्कूल फीस भरोगे क्या? तो ऐसे मर्द भी होने चाहिए सोसाइटी में जो अपनी वाइफ को अपने बच्चों की मां को स्टीरियो टाइप इमेज से बाहर निकलने में मदद करें।”
कहते हैं न एक औरत ही औरत की दुश्मन होती है। कुछ गलत नहीं कहते हैं। बिल्कुल सही जुमला है यह। एक औरत जब दूसरी औरत की मदद के लिए आगे बढ़ेगी तब जाकर उसे कमजोर समझने वालों की भ्रष्ट बुद्धी ठीक हो पाएगी। इसलिए सही को सही और गलत को गलत कहने से डरें नहीं। इससे भी अव्वल, मां अपने मन की बात मन में ही रखती है। यहां भी सुधार की जरूरत है। मन की बात बोल दी जाए तो मन हल्का हो जाता है और लोगों की सोच में परिवर्तन भी किया जा सकता है।
खुद से भी प्यार करके देखें
खुद से प्यार करने का अहसास भी बहुत खूबसूरत होता है। मन को जो शांति मिलती है, वैसी कोई दूसरा काम करने में नहीं मिलती। हो सकता है कि लोग आपको सेल्फिश समझें, तो सोचने की जरूरत नहीं है समझ लेने दीजिए। कभी कभी सेल्फिश होना भी अच्छा होता है। यह हम नहीं सुप्रिया जी कहती हैं। वह आगे कहती हैं, “बच्चों को आगे बढ़ने में इतना न गुम हो जाएं कि खुद को पीछे छोड़ दें। जो लोग आपको ताने मारेंगे वो आपकी मुसीबत में कभी आपके साथ नहीं खुड़े होंगे। बच्चे जब छोटे होते हैं, तब मां उनके काम में व्यस्त रहती। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो अपने में व्यस्त हो जाते हैं। कई बार तो मां से बात करने का समय भी नहीं निकाल पाते हैं। तो आपको कुछ ऐसा करना चाहिए न कि बच्चे आपसे पूछे कि मां फ्री हो तो जरा बात कर लें।”
मदर्स को संदेश
एक मां में शक्ति के सार स्वरूप हैं, तो वो कमजोर कैसे हो सकती है। लोगों की सोच बदलने से पहले अपनी सोच बदलें। जो जैसा सोच रहा है उसे सोचने दें, मगर आप किसी की सोच पर निर्भर होकर अपना जीवन न जीएं।
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