भारत की धार्मिक विरासत का प्रतीक और संस्कृति का दर्पण महाकुंभ मेला एक ऐसा आयोजन है, जो आस्था, परंपरा और आध्यात्मिकता को दिखाता है। यह मेला हर 12 साल में प्रयागराज में आयोजित होता है। महाकुंभ मेला न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पक्ष भी उतना ही रोचक और प्रेरणादायक है। हालांकि अगर हम इससे जुड़े तथ्यों की बात लकारें तो न जाने कितनी ऐसी बातें हैं जिनके बारे में हमें आज भी सही जानकारी नहीं है। एक ऐसा ही सवाल हैं जो मानस पटल पर अंकित है, वो है महाकुंभ की शुरुआत कब और कहां हुई? आखिर कब पहली बार लगा होगा महाकुंभ मेला? धर्म की इस अनमोल विरासत की इस पर पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों तरह की मान्यताएं हैं।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश से गिरती बूंदों के कारण कुंभ मेले से जुड़े विशेष स्थलों हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज को विशेष महत्व मिला। वहीं, ऐतिहासिक दृष्टि से महाकुंभ का पहला उल्लेख प्राचीन शिलालेखों में मिलता है। आज भी लाखों लोग इस आयोजन से जुड़े कई रहस्यों और तथ्यों से अंजान हैं। जैसे, पहला महाकुंभ मेला कब और कहां आयोजित हुआ था? यह आयोजन किन ज्योतिषीय घटनाओं से जुड़ा है? नागा साधु और शाही स्नान की परंपरा कैसे शुरू हुई? आइए इस लेख में हम इन सभी बातों के बारे में विस्तार से जानें।
कब से शुरू हो रहा है साल 2025 का महाकुंभ?
साल 2025 का महाकुंभ मेला 13 जनवरी 2025, सोमवार से आरंभ हो रहा है और यह मेला 26 फरवरी 2025 तक चलेगा। यह महाकुंभ मेला प्रयागराज में आयोजित किया जाएगा, जो हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण और पवित्र मेलों में से एक है। महाकुंभ का आयोजन हर 12 साल में होता है और यह मेला विशेष रूप से संगम तट पर आयोजित किया जाता है, जहां गंगा, यमुना और अदृश्य नदी सरस्वती आकर मिलती हैं।
इस अवसर पर लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं और पवित्र शाही स्नान करके अपने पापों का नाश करते हैं। महाकुंभ के दौरान शाही स्नान की तिथियां विशेष महत्व रखती हैं। इस दौरान 14 जनवरी 2025 को मकर संक्रांति के दिन शाही स्नान होगा, इसके बाद 29 जनवरी यानी मौनी अमावस्या को, 3 फरवरी, बसंत पंचमी को 12 फरवरी, माघ पूर्णिमा को और 26 फरवरी महाशिवरात्रि को भी शाही स्नान आयोजित होंगे। इन तिथियों पर संगम में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है।
कब और कहां लगा था सबसे पहले महाकुंभ मेला?
महाकुंभ मेला के इतिहास से जुड़े कई रोचक पहलू हैं, जो इसे एक अद्वितीय सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन बनाते हैं। पौराणिक मान्यताओं की मानें तो महाकुंभ मेला की शुरुआत सतयुग से हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि इसका आधार समुद्र मंथन की उस कथा में है, जहां अमृत की बूंदें चार पवित्र स्थलों प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक पर गिरी थीं।
महाकुंभ मेला की ऐतिहासिक शुरुआत को लेकर प्राचीन ग्रंथों में सटीक जानकारी नहीं मिलती है। कई ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है, लेकिन इनमें मेले के पहले आयोजन के समय और स्थान को लेकर स्पष्टता नहीं है। वहीं कुछ विद्वानों का मानना है कि महाकुंभ की परंपरा 850 साल पहले शुरू हुई थी और आज तक हर 12 साल बाद इसका आयोजन प्रयागराज में होता है। वहीं हर 6 साल में अर्द्धकुंभ का आयोजन होता है। महाकुंभ का पहला उल्लेख प्राचीन शिलालेखों में देखने को मिलता है। यह आयोजन न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके माध्यम से भारतीय संस्कृति और सभ्यता की गहराई को भी समझा जा सकता है। महाकुंभ मेला का इतिहास आज भी कई रहस्यों से भरा हुआ है।
महाकुंभ का इतिहास क्या है?
महाकुंभ का आयोजन 850 साल से भी ज्यादा पुराना है। अगर हम इसकी शुरुआत की बात करें तो इसका आयोजन सबसे पहली बार आदि शंकराचार्य द्वारा ने किया था। कुछ कथाओं के अनुसार महाकुंभ मेले का आयोजन समुद्र मंथन के बाद से ही आरंभ हो गया था। जिन स्थानों पर भी समुद्र मंथन से निकले हुए अमृत कलश का अमृत गिरा था उसी समय से वहां एक बहुत बड़े मेले का आयोजन होने लगा। ऐसी मान्यता है कि उस स्थान की नदियों के जल में भी अमृत है और उसमें स्नान करने वाले अमृत का पान कर लेते हैं और उन्हें मोक्ष मिलता है। समुद्र मंथन के बाद ही गुरु शंकराचार्य और उनके शिष्यों द्वारा संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर शाही स्नान की व्यवस्था की गई थी और तभी से अखाड़ों की नींव भी रखी गई।
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महाकुंभ मेले से जुड़ा रहस्य
महाकुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश के साथ हुई, लेकिन इससे जुडी एक और कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार जब देवराज इंद्र के पुत्र जयंत कौए के रूप में अमृत कलश लेकर जा रहे थे तो उनकी जीभ पर भी अमृत की कुछ बूंदे लग गई थी। इसी वजह से आज भी कौए की उम्र अन्य पक्षियों की तुलना में लंबी होती है।
जब जयंत अमृत कलश लेकर भाग रहे थे तो कुछ बूंदे प्रयागराज, उज्जैन , हरिद्वार और नासिक में गिरीं जिसकी वजह से यह स्थान पवित्र स्थल बन गए और यहां महाकुंभ का आयोजन होने लगा। वहीं उसी समय इस अमृत की कुछ बूंदें दूर्वा घास पर भी पड़ीं और उसी समय से इसे भी पवित्र माना जाने लगा और पूजा-पाठ में इसका इस्तेमाल होने लगा। यही नहीं इस घास को भगवान गणपति की प्रिय घास माना जाने लगा।
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आखिर क्यों प्रयागराज में ही 12 साल बाद होता हो महाकुंभ का आयोजन?
प्रयागराज में हर 12 साल बाद महाकुंभ का आयोजन होता है जिसका महत्व सबसे ज्यादा है। इसका मुख्य कारण यह है कि इसी स्थान पर तीन पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। हालांकि सरस्वती नदी विलुप्त हो चुकी है, लेकिन आज भी वो प्रयागराज में मौजूद है। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति इन तीन नदियों के संगम में शाही स्नान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी वजह से प्रयागराज के महाकुंभ का महत्व सबसे ज्यादा है।
महाकुंभ का जिक्र न सिर्फ पौराणिक कथाओं में मिलता है बल्कि ये इतिहास के पन्नों का एक अभिन्न हिस्सा भी है। महाकुंभ से जुड़े कई रहस्यों की जानकारी हम आपको अपने आर्टिकल के जरिये दे रहे हैं। अगर आपका इससे जुड़ा कोई भी सवाल है तो आप आप कमेंट बॉक्स में हमें जरूर बताएं। आपको यह स्टोरी अच्छी लगी हो तो इसे फेसबुक पर शेयर और लाइक जरूर करें। इसी तरह और भी आर्टिकल पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी से।
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