प्रदोष व्रत का बहुत महत्व माना जाता है। मान्यता है कि प्रदोष व्रत रखने से भगवान शिव की असीम कृपा मिलती है और जीवन में सुख-समृद्धि का आगमन होता है। प्रदोष व्रत के दिन जहां एक ओर भगवान शिव और माता पार्वती की आराधना करने से घर-परिवार में खुशहाली आती है तो वहीं, प्रदोष व्रत की कथा सुनने से पुण्यों में वृद्धि होती है और शिव-शक्ति का आनिध्य प्राप्त होता है। इसी कड़ी में ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स ने हमें बताया कि जून का पहला प्रदोष व्रत 8 तारीख, रविवार को पड़ रहा है। ऐसे में इसे रवि प्रदोष व्रत के नाम से जाना जाएगा, तो चलिए जानते हैं रवि प्रदोष व्रत की कथा के बारे में।
रवि प्रदोष व्रत कथा (Ravi Pradosh Vrat Katha)
प्रदोष व्रत जिस दिन पड़ता है, वह उस दिन उस नाम से जाना जाता है। उदाहरण के तौर पर, अगर प्रदोष व्रत सोमवार का है तो सोम प्रदोष व्रत कहलाएगा। अगर प्रदोष व्रत रविवार के दिन पड़ रहा है तो रवि प्रदोष व्रत कहलाएगा। विशेष बात यह है कि हर प्रदोष व्रत की अलग कथा भी शास्त्रों में वर्णित है। ठीक ऐसे ही रवि प्रदोष व्रत की कथा के अनुसार, अंबापुर नाम के एक गांव में एक ब्राह्मणी रहती थी। उसके पति का देहांत हो चुका था इसलिए वह लोगों से भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करती थी। एक दिन जब वह भिक्षा मांगकर घर लौट रही थी तो उसे रास्ते में दो छोटे बच्चे मिले। वे दोनों बच्चे बहुत उदास और दुखी दिख रहे थे। उनकी ऐसी हालत देखकर ब्राह्मणी को बहुत चिंता हुई और वह परेशान हो गई।
ब्राह्मणी यह देखकर हैरान थी कि इन दोनों बच्चों के माता-पिता कहां हैं। वह सोचने लगी कि आखिर ये बच्चे अकेले क्यों हैं और इनके पीछे कौन होगा। इसके बाद, ममता से भरकर वह उन दोनों बच्चों को अपने साथ अपने घर ले आई और उनका पालन-पोषण करने लगी। जैसे-जैसे समय बीता, वे दोनों बालक बड़े हो गए। एक दिन ब्राह्मणी उन दोनों बच्चों को लेकर ऋषि शांडिल्य के पास पहुंची जो बहुत ज्ञानी थे। उसने ऋषि शांडिल्य को प्रणाम किया और उनसे यह जानने की इच्छा जाहिर की कि इन दोनों बच्चों के असली माता-पिता कौन हैं।
तब ऋषि शांडिल्य ने ब्राह्मणी को बताया कि ये दोनों बच्चे असल में विदर्भ नरेश के राजकुमार हैं। गंधर्व नरेश ने हमला करके उनका राज्य छीन लिया है इसी कारण वे अब अपने राज्य से बेदखल हो गए हैं। यह सुनकर ब्राह्मणी ने पूछा कि कोई ऐसा तरीका बताएं जिससे इन राजकुमारों को अपना राज्य वापस मिल सके। इस पर ऋषि शांडिल्य ने उन्हें प्रदोष व्रत रखने की सलाह दी। ऋषि की बात मानकर ब्राह्मणी और दोनों राजकुमारों ने पूरी श्रद्धा और लगन से प्रदोष व्रत का पालन किया। व्रत के प्रभाव से ही उन दिनों विदर्भ नरेश के बड़े राजकुमार की मुलाकात अंशुमती नाम की एक कन्या से हुई।
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बड़ा राजकुमार और अंशुमती दोनों शादी करने के लिए तैयार हो गए। जब अंशुमती के पिता को यह बात पता चली, तो उन्होंने गंधर्व नरेश के खिलाफ युद्ध में राजकुमारों की मदद की। इस सहायता से राजकुमारों को युद्ध में जीत मिली। यह सब प्रदोष व्रत के प्रभाव से हुआ जिसके कारण उन राजकुमारों को उनका खोया हुआ राज्य और राजपाट वापस मिल गया। राजकुमार अपनी जीत से बहुत खुश थे और उन्होंने ब्राह्मणी को अपने दरबार में एक खास और सम्मानित जगह दी। इससे ब्राह्मणी की सारी गरीबी दूर हो गई और वह अपना बाकी का जीवन खुशी-खुशी बिताने लगी।
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image credit: herzindagi
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