हिंदू धर्म में धन और समृद्धि के देवता कुबेर देव को माना जाता है। कुबेर देव की पूजा खासतौर पर धनतेरस के दिन की जाती है। माना जाता है कि धनतेरस के दिन कुबेर देव की पूजा करने से कभी भी घर में धन की कमी नहीं रहती है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि कुबेर को धन के देवता क्यों कहा जाता है और क्या उनका असली नाम कुबेर ही था?
आपको जानकर हैरानी होगी कि कुबेर कोई नाम नहीं है,बल्कि एक उपाधि है, जिसका मतलब होता है धन का स्वामी। पुराणों के अनुसार, कुबेर का असली नाम विश्रवण था, क्योंकि उनके पिता महर्षि विश्रवा थे और उनका भाई लंकापति रावण था। उन्होंने कठोर तप किया था और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर वरदान दिया था और धन के देवता कुबेर की उपाधि दी थी।
कुबेर देव कौन हैं और वो धन के देवता कैसे बने?
पुराणों के अनुसार, कुबेर देवता रावण के सौतेले भाई थे। रावण की मृत्यु के बाद, उन्हें असुरों का राजा बना दिया गया था। कुबेर को उत्तर दिशा का रक्षक (दिक्पाल) भी माना जाता है और साथ ही वो देवताओं के खजाने के संरक्षक भी हैं। उनके पिता महर्षि विश्रवा और माता देववर्णिनी थीं। कुबेर भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त माने जाते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि उनके पास नौ निधियों का अधिकार है। इसलिए उन्हें धन और समृद्धि का देवता माना जाता है। कुबेर देव को अक्सर चित्रों में छोटे कद, भारी शरीर और गोरे रंग के रूप में दिखाया जाता है। उनके शरीर पर बहुमूल्य रत्नों से सजी वस्त्र और आभूषण होते हैं। कई बार उन्हें हाथ में उल्लू लिए हुए भी दिखाया जाता है, जो उनके वाहन के रूप में माना जाता है और संपन्नता का प्रतीक है।
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क्या कुबेर पहले चोर थे?
स्कंद पुराण के अनुसार, पिछले जन्म में कुबेर एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे और उनका नाम गुणनिधि था। बचपन में वह गलत संगति में पड़कर जुआ खेलने लगे थे। धीरे-धीरे उन्होंने चोरी-चकारी करनी शुरू कर दी थी। जब उनके पिता के यह बात पता चली थी, तो उन्होंने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया था। जब वह बेघर हो गए, तो वह भटकते हुए एक शिव मंदिर में पहुंचे थे, जहां उन्होंने प्रसाद चुराने की कोशिश की थी।
जब वह गर्भगृह के पास पहुंचे, तो देखा कि भगवान शिव की मूर्ति के सामने दीपक जल रहा था। चोरी करते समय दीपक की रोशनी को रोकने के लिए उन्होंने अपना अंगोछा ऊपर डाल दिया। हालांकि, उस समय मंदिर में एक पुजारी सो रहा था। जब पुजारी को किसी के आने का अहसास हुआ तो उसकी नींद खुल गई। जैसे ही गुणनिधि को देखा तो पुजारी उस पर टूट पड़ा। दोनों के बीच हाथापाई हुई, जिसमें गुणनिधि की मृत्यु हो गई।
भगवान शिव ने क्यों दिया धन देवता का आशीर्वाद?
मृत्यु के बाद, जब यमदूत गुणनिधि की आत्मा को लेने आए, तो वहां भगवान शिव के दूत भी जा पहुंचे। उन्होंने कहा कि शिवजी ने गुणनिधि को अपने पास बुलाया है और इतना कहकर वे गुणनिधि को भोलेनाथ के सामने ले गए। भगवान शिव ने देखा कि गुणनिधि ने उनकी पूजा में जल रहे दीपक को बुझने से रोका था, भले ही वह चोरी करने आया था। उसके अनजाने सेवा से प्रभावित होकर और उसके सभी पापों को माफ करते हुए। गुणनिधि की भक्ति से प्रसन्न होकर भोलेनाथ ने उसे कुबेर की उपाधि दे दी और देवताओं के खजाने का संरक्षक बना दिया।
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रामायण में भी मिलता है कुबेर देव का जिक्र
रामायण में वर्णित कथा के अनुसार, कुबेर देव भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर कठोर तप करने चले गए थे। तप के दौरान, शिव-पार्वती दोनों प्रकट हुए थे। जब कुबेर ने अपनी बाईं आंख से पार्वती जी को देखा, तो माता के दिव्य तेज की वजह से उनकी आंख जलकर पीली हो गई। इसके बाद, कुबेर देव ने दूसरी जगह जाकर तप किया।
उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भोलेनाथ ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुमने अपनी तपस्या से मुझे खुश कर दिया है। अब से तुम एकाक्षी पिंगल कहलाए जाओगे, जिसका अर्थ है कि एक आंख और पीले नेत्र वाले।
कुबेर देव कब बने पूजनीय?
कहा जाता है कि एक बार भगवान विष्णु ने कुबेर जी से पूछा कि वह अपने खजाने और धन का इस्तेमाल कैसे करते हैं। कुबेर देव ने गर्व से उत्तर दिया कि वह इसे इकट्ठा करते हैं और विलासिता का आनंद लेते हैं। विष्णु जी मुस्कुराए और उन्होंने बताया कि धन दूसरों की मदद के लिए होता है। तब कुबेर देव को अपनी गलती का एहसास हुआ और वह अपने धन का इस्तेमाल दूसरी की मदद में करने लगे। इस तरह, कुबेर देव की पूजा की शुरुआत हुई।
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