आषाढ़ गुप्त नवरात्रि के दौरान दुर्गा सप्तशती ही नहीं, इस कवच के पाठ से भी शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं मां दुर्गा

आषाढ़ गुप्त नवरात्रि के दौरान घटस्थापना नहीं की जाती है मगर पूजा-पाठ करने से 100 गुना ज्यादा शुभ फल मिलता है। इस साल आषाढ़ गुप्त नवरात्रि 27 जून, शुक्रवार से शुरू होगी और 06 जुलाई, रविवार को समाप्त होगी।  
ashadh gupt navratri 2025 durga kavach

आषाढ़ गुप्त नवरात्रि का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है। यह नवरात्रि मुख्य रूप से तंत्र-मंत्र की साधना करने वाले साधकों और विशेष मनोकामनाओं की पूर्ति के इच्छुक भक्तों द्वारा मनाई जाती है। इसमें दस महाविद्याओं मां काली, तारा, त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला की गोपनीय तरीके से पूजा की जाती है। यूं तो यह तांत्रिकों की नवरात्रि है लेकिन गृहस्थी भी इस दौरान मां दुर्गा की पूजा करते हैं।

हां, आषाढ़ गुप्त नवरात्रि के दौरान घटस्थापना नहीं की जाती है मगर पूजा-पाठ करने से 100 गुना ज्यादा शुभ फल मिलता है। इस साल आषाढ़ गुप्त नवरात्रि 27 जून, शुक्रवार से शुरू होगी और 06 जुलाई, रविवार को समाप्त होगी। ऐसे में जहां एक ओर इन नौ दिनों में दुर्गासप्तशती का पाठ करना शुभ माना जाता है तो वहीं, दूसरी ओर ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स ने हमें बताया कि इस दौरान मां दुर्गा के कवच का पाठ करने से भी माता का आशीर्वाद मिलता है।

दुर्गा कवच का पाठ

॥अथ श्री देव्याः कवचम्॥

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्,
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।
ॐ नमश्‍चण्डिकायै ॥

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥

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ब्रह्मोवाच

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥

न तेषां जायते किंचित शुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारुढा वैष्णवी गरुडासना॥

माहेश्‍वरी वृषारुढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥

श्‍वेतरुपधरा देवी ईश्‍वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारुढा सर्वाभरणभूषिता॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥

दृश्यन्ते रथमारुढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥

दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खङ्‍गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥

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हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्‍वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्‍वरी॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्‍वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्‍चैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्‍वरी तथा॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अन्त्राणि कालरात्रिश्‍च पित्तं च मुकुटेश्‍वरी॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्‍वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥

रसे रुपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्त्वं रजस्तमश्‍चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥

तत्र तत्रार्थलाभश्‍च विजयः सार्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्‍चितम्।
परमैश्‍वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥

निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
भूचराः खेचराश्‍चैव जलजाश्‍चोपदेशिकाः॥

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्‍च महाबलाः॥

ग्रहभूतपिशाचाश्‍च यक्षगन्धर्वराक्षसाः।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥

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यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥

लभते परमं रुपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥
इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्।

दुर्गा कवच पाठ के लाभ

आषाढ़ गुप्त नवरात्रि के दौरान दुर्गा कवच का पाठ करना बहुत ही शुभ और लाभकारी माना जाता है। दुर्गा कवच, जिसे चंडी कवच भी कहते हैं, मार्कण्डेय पुराण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह एक शक्तिशाली स्तोत्र है जो मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की स्तुति करते हुए उनसे रक्षा की प्रार्थना करता है। इस कवच का पाठ करने से व्यक्ति को कई तरह के लाभ मिलते हैं।

सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह है कि यह सुरक्षा प्रदान करता है। दुर्गा कवच का पाठ करने से एक अदृश्य सुरक्षा घेरा बन जाता है जो व्यक्ति को नकारात्मक ऊर्जाओं, शत्रुओं, बुरी नजर और हर प्रकार के खतरों से बचाता है। यह कवच भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह की सुरक्षा सुनिश्चित करता है, जिससे साधक निर्भीक होकर अपने मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।

दूसरा बड़ा लाभ यह है कि यह आत्मविश्वास और साहस बढ़ाता है। जब कोई व्यक्ति दुर्गा कवच का पाठ करता है, तो उसे मां दुर्गा की असीम शक्ति का अनुभव होता है। यह अनुभव उसके मन से भय और संशय को दूर करता है, जिससे उसमें आत्मविश्वास और साहस का संचार होता है। यह विशेष रूप से उन लोगों के लिए फायदेमंद है जो किसी चुनौती का सामना कर रहे हैं या किसी कठिन परिस्थिति से गुजर रहे हैं।

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इसके अलावा, दुर्गा कवच का पाठ मनोकामनाएं पूर्ण करने में सहायक होता है। जो भक्त सच्ची श्रद्धा और विश्वास के साथ इस कवच का पाठ करते हैं, उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। यह न केवल भौतिक सुख-समृद्धि प्रदान करता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति में भी सहायक होता है। यह रोग-दोषों से मुक्ति दिलाने और स्वास्थ्य में सुधार लाने में भी कारगर माना जाता है।

गुप्त नवरात्रि के दौरान इसका पाठ करने से साधना में सफलता भी मिलती है। चूंकि गुप्त नवरात्रि विशेष रूप से गुप्त सिद्धियों और तंत्र-मंत्र की साधना के लिए होती है, ऐसे में दुर्गा कवच का पाठ साधना में आने वाली बाधाओं को दूर करता है और साधक को अपनी लक्ष्य प्राप्ति में मदद करता है। यह आध्यात्मिक ऊर्जा को बढ़ाता है और ध्यान केंद्रित करने में सहायता करता है।

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image credit: herzindagi

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FAQ

  • आषाढ़ गुप्त नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा को क्या भोग लगाएं? 

    गुप्त नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा को घी से बने व्यंजनों का भोग लगाना चाहिए।