सरसों के तेल से वजन तो कम होता ही है और साथ ही आपकी स्किन ग्लो करने लगती है। सरसों का तेल सेहत और सुंदरता दोनों के ही लिए बहुत फायदेमंद है। सरसों के तेल में कई ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो दर्दनाशक का काम करते हैं। स्किन को बेदागी बनाना हो, जोड़ों का दर्द हो या फिर दांत का दर्द सरसों का तेल एक औषधि की तरह काम करता है।
कश्मीर, पंजाब, बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पले-बढ़े लोग निस्संदेह सरसों तेल का स्वाद चख चुके होंगे लेकिन पिछले दशक से ऐसे अनेक उपभोक्ता सरसों तेल का उपयोग करने लगे हैं जो पहले कभी इसके परंपरागत उपभोक्ता नहीं रहे हैं।
बोस्टन स्थित हार्वर्ड स्कूल ऑफ मेडिसिन, नई दिल्ली के भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और बेंगलुरू स्थित सेंट जॉन्स हॉस्पिटल द्वारा वर्ष 2004 में करवाए गए संयुक्त अध्ययन की रिपोर्ट अमेरिकी जर्नल ऑफ क्लिनिकल न्यूट्रीशन में प्रकाशित होने के बाद से सरसों तेल में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है।
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इस ऐतिहासिक शोध में भारत में लोगों के आहार की आदत और हृदय रोग से उसके संबंध का परीक्षण किया गया जिसमें पाया गया कि भोजन पकाने में मुख्य रूप से सरसों का उपयोग करने से कोरोनरी हृदय रोग (सीएचडी) के खतरों में 71 फीसदी की कमी आई है। इससे सरसों तेल के अपरंपरागत उपभोक्ता भी सरसों तेल खाने लगे हैं।
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यह जानना काफी रोचक है कि सरसों तेल में झांस कहां से आती है। प्रकृति से भी सरसों में झांस होती है। जब सरसों की पेराई की जाती है तो उससे माइरोंसिनेस नामक एन्जाइम (पाचक रस) निकलता है। माइरोंसिनेस और सिनिग्रीन के मिलने से एआईटीसी पैदा होता है जिसके कारण सरसों तेल में झांस आती है।
भारत में करीब 2000 ईसा पूर्व से ही तेल की पेराई के लिए कोल्हू का इस्तेमाल होता रहा है। प्राचीन काल में लकड़ी का कोल्हू होता था जिसे खींचने के लिए बैल या भैंस का उपयोग किया जाता था। तेल की पेराई कम तापमान पर होती थी जोकि भरपूर एआईटीसी के लिए आवश्यक शर्त है।
बाद में प्रौद्योगिकी विकास के साथ एक्सपेलर का इस्तेमाल होने लगा। इस विधि में तिलहन का तापमान बढ़कर 80 से 100 डिग्री सेल्सियस हो गया जिसके कारण एआईटीसी भाप में उड़ जाता है इसलिए उसमें झांस नहीं रह जाती है। साथ ही सरसों तेल के औषधीय गुण भी समाप्त हो जाते हैं।
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