उत्तराखण्ड गढ़वाल में शादी-ब्याह जैसे खुशी के मौकों पर मेहमानों को कलेऊ यानि शगुन के तौर पर (पारंपरिक मिठाई) देने की अनूठी परंपरा है। असल में कलेऊ मिठाई मात्र न होकर अपनों के प्रति स्नेह दर्शाने का भाव भी है। इसलिए गढ़वाल के पर्वतीय इलाके में पीढ़ियों से कलेऊ देने की पंरपरा चली आ रही है। विवाह की रस्म तो इस सौगात के बिना पूरी ही नहीं मानी जाती। कलेऊ में विभिन्न प्रकार की मिठाइयां होती हैं, जिन्हें विदाई के अवसर पर नाते-रिश्तेदारों को दिया जाता है। इनमें सबसे लोकप्रिय है 'अरसा'।
अरसा अगर एक बार मुंह में रख लें, तो इसकी कभी ना भूलने वाली मिठास मुंह में घुल जाती है। आज खाइए, या कल खाइए, या एक महीने बाद, अरसे का स्वाद ताउम्र एक जैसा रहेगा। बेटी-बहु के मायके और ससुराल जाने पर भी शगुन में अरसा पारंपरिक मिठाई भेजी जाती है। खास बात यह कि अरसा महीनों तक खराब नहीं होता।
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दक्षिण भारत में है ये अरसालु
आज अरसा बनाने की कला हर गढ़वाली भूल रहा है। गढ़वाली हम इसलिए कहेंगे क्योंकि ये डिश आपको उत्तराखंड के गढ़वाल में ही मिलेगी। अब सवाल ये है कि आखिर अरसा सिर्फ गढ़वाल में ही कैसे आया। अगल बगल देखें तो ना ही कुमाऊं, ना ही नेपाल, ना ही तिब्बत, ना ही हिमाचल, कहीं भी अरसा नहीं बनता, फिर ये गढ़वाल में कैसे आ गया? तो लीजिए हम आपको बता रहे हैं। जिस अरसा को आप गढ़वाल में खाते हैं, उसे कर्नाटक या यूं कहें कि दक्षिण भारत में अरसालु नाम से जानते हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर दक्षिण भारत का गढ़वाल से क्या कनेक्शन है?
1100 साल पुराना है अरसा का इतिहास
इतिहासकारों की मानें तो अरसा बनाने की परंपरा बीते 1100 साल से चली आ रही है। कहते हैं जब जगतगुरू शंकराचार्य ने बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके अलावा गढ़वाल में कई ऐसे मंदिर हैं, जिनका निर्माण शंकराचार्य ने करवाया था। इन मंदिरों में पूजा करने के लिए दक्षिण भारत के ही ब्राह्मणों को रखा जाता है। कहा जाता है कि नवीं सदी में दक्षिण भारत से ये ब्राह्मण गढ़वाल में अरसालु लेकर आए थे। क्योंकि ये काफी दिनों तक चल जाता है, तो इसलिए वो पोटली भरकर अरसालु लाया करते थे। धीरे धीरे इन ब्राह्मणों ने ही स्थानीय लोगों को ये कला सिखाई। गढ़वाल में ये अरसालु बन गया अरसा। 9वीं सदी से अरसालु लगातार चलता आ रहा है, यानी 1100 सालों से गढ़वाल में अरसा एक मुख्य मिष्ठान और परंपरा का सबूत था।
अरसा बनाने के लिए समाग्री
- भीगे चावल 250 ग्राम
- गुड़ 100 ग्राम
- सौंप 2/3 टी स्पून
- तिल 1/2 टी स्पून
- नारियल का बूरा 2 कप
- किशमिश 3/4 टी स्पून
- पानी 1½ कप
- तेल या रिफाइंड आवश्यकतानुसार
बनाने की विधि, ऐसे तैयार होता है अरसा
- अरसा बनाने के लिए चावलों को 6 घंटे पहले से ही भिगो दें, तय समय के बाद चावलों को पीस लें।
- चावल पीसने के बाद उसे उसे आटे के समान साफ छान लें।
- अब मीडियम आंच में एक गहरे पैन में गुड़ की दो तार की चाश्नी बनाएं और गुड़ के इस घोल को अच्छे से पकायें, ध्या न रखें कि गुड़ जल न जाए।
- हल्की आंच में तैयार घोल में अब पिसा हुआ चावल का आटा मिला लें और कड़छी से अच्छेड से चलाते हुए आटे को गुड के घोल में मिला लें, जायका बढ़ाने के लिए इसमें सौंफ, नारियल का चूरा किशमिश तिल भी मिलाये और फिर उसे ठंडा करने के लिए किसी बर्तन में निकालकर रख दें।
- अब धीमी आंच में एक पैन में तेल गर्म करने के लिए रखें।
- तेल के गर्म होते ही मिश्रण के ठंडे होने पर अब उससे छोटी—छोटी लोइयां बनाकर पकोड़ी की तरह गरम तेल में सुनहरा होने तक तलें। जब इनका रंग सुनहररा भूरा हो जाये तो उन्हें अलग से निकाल लें और इस तरह आपकी स्वीडट डिश अरसा तैयार है।
गढ़वाल में अरसा बनाने में गन्ने का गुड़ इस्तेमाल होता है और कर्नाटक में खजूर का गुड़ इस्तेमाल होता है। बस यही थोड़ा सा फर्क है स्वाद में। धीरे धीरे ये गढ़वाल का यादगार व्यंजन बन गया। इसेक अलावा अरसा तमिलनाडु, केरल, आंध्र, उड़ीसा और बंगाल में भी बनाया जाता है। कहीं इसे अरसालु कहते हैं और कहीं अनारसा। तो फिर दिवाली हो या हो कोई और त्योहार, दोस्तों और परिवार को दें, गढवाल की हजार साल पुरानी परम्पराओ की मिठाई अरसा का उपहार।
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