बच्चे हो या बड़े चाट का नाम सुनते ही मुंह में पानी आने लगता है। वीकेंड हो या मार्केट में चक्कर काट रहे हो, लोग सड़क किनारे जाकर चाट के चटकारे जरूर लेते हैं। भारत की हर गली-मोहल्ले में चाट की दुकान मिल ही जाएगी, जहां हर वक्त ग्राहकों की भीड़ दिखेगी। चटपटी चाट के दीवाने मार्केट जाएं या शादी पार्टी में जाएं, चाट और पानी पुरी तो जरूर खाएंगे। चटपटी चाट की शुरुआत या इतिहास की कहानी बहुत मजेदार है, चाट की खट्टी-मीठी स्वाद की कहानी का संबंध मुगल काल से है। चलिए जानते हैं कि कैसे यह बीमारी के इलाज से लोगों की पहली पसंद बनी।
इस बीमारी की दवा बनी थी चाट
आज जिस चाट को बाजार में खूब खाया जाता है, यहां तक लोगों को यह इतना पसंद है कि लोग इसे घर पर भी बनाकर चाव से खाते हैं। बता दें कि इसकी शुरुआत 16वीं शताब्दी से हुई है, जब मुगल बादशाह शाहजहांऔर उनकी सेना यमुना किनारे बसने आई थी, बता दें कि उस जगह के पानी से लोगों में हैजा की बीमारी फैल गई, जिसे लाख कोशिश के बाद भी नियंत्रण में लाना मुश्किल हो गया था।
इस तरह हुई चाट खाने की शुरुआत
लोगों में फैले हैजा की बीमारी से काबू पाने के लिए उस वक्त के एक वैद्य ने कुछ मसालों के बारे में बताया। इस मसाले के इस्तेमाल से हैजा में काबू पाया जा सकता था। इस तरह वैद्य ने इमली, पुदीना, जड़ी-बूटी और कई तरह के मसालों के साथ खट्टा-मीठा स्वाद वाला चाट बनाया गया। दवा के रूप में तैयार इस चाट को हैजा से ग्रसित लोगों ने खाया।
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इसका नाम चाट ही क्यों पड़ा?
चाट बनाने के लिए अलग-अलग तरह के जड़ी-बूटियों और भारतीय मसालों का उपयोग कर किया गया और वैद्य ने मरीजों को सलाह दी की इसे चाट-चाटकर खाना है। लोग भी इसके चटपटे और अनोखे स्वाद के कारण खाने लगे, जिसके कारण इसका नाम चाट पड़ा। बता दें कि चाट भारत का ही नहीं साउथ एशिया का भी बेहद मशहूर व्यंजन है।
कई सारे इतिहास कार चाट को दही भल्ले के साथ जोड़ते हैं। 12 वीं शताब्दी के इनसाइक्लोपीडिया मानस ओलेसा में भी दही वड़े के बारे में जिक्र किया गया है। मानस ओलेसा को कर्नाटक के राजा सोमेश्वर 3 ने लिखी था। मानस ओलेसा में वड़ा को दूध, दही और पानी में डुबोने का बारे में बताया गया है। यह भारत ही नहीं पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल समेत दुनिया के कई देशों में लोकप्रिय है और खाने वाले इसके दीवाने हैं।
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