शुक्राचार्य कैसे बने दैत्यों के गुरु? विष्णु जी के विरोधी लेकिन नवग्रहों में हैं पूजनीय, जानें रहस्य

हिंदू धर्मशास्त्रों में शुक्राचार्य को एक विद्वान, तपस्वी और अत्यंत शक्तिशाली गुरु के रूप में माना गया है। वे असुरों के आध्यात्मिक मार्गदर्शक और गुरु के रूप में विख्यात हैं, लेकिन भगवान विष्णु के विरोधी भी हैं। आइए जानें उनसे जुड़े कुछ रहस्यों के बारे में।
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हिंदू धर्म में शुक्राचार्य का स्थान अत्यंत विशिष्ट माना गया है। वे न केवल असुरों के गुरु रूप में जाने हैं, बल्कि उन्हें नवग्रहों में शुक्र ग्रह के अधिपति के रूप में भी पूजा जाता है। ऐसे में एक बात हम सभी के दिमाग में प्रश्नचिह्न की तरह कड़ी रहती है कि एक ऐसा पात्र, जो हमेशा देवताओं के विरुद्ध खड़ा रहा और भगवान विष्णु के साथ उनके भक्तों का विरोधी भी रहा। आखिर उसे कैसे नवग्रहों जैसे पूजनीय खगोलीय मंडल का हिस्सा बनाया गया? दरअसल, शुक्राचार्य के जीवन और उनके कार्यों में गहराई से देखने पर स्पष्ट होता है कि उनका योगदान केवल दैत्यों के मार्गदर्शक के रूप में सीमित नहीं था, बल्कि वे महान तपस्वी, सिद्ध योगी और अद्भुत ज्ञान के धनी भी थे। उन्होंने भगवान शिव से संजीवनी विद्या प्राप्त की थी, जिससे वे मृत दैत्यों को जीवित कर सकते थे। यही कारण था कि असुरों के लिए वे सर्वोच्च गुरु बन गए।

हालांकि उनका भगवान विष्णु से विरोध कई घटनाओं के कारण हुआ, लेकिन उन्होंने कभी धर्म के मार्ग को पूरी तरह से नहीं छोड़ा। आइए ज्योतिर्विद पंडित रमेश भोजराज द्विवेदी से इसके बारे बारे में विस्तार से जानें कि इस लेख में हम जानेंगे कि शुक्राचार्य कैसे दैत्यों के गुरु बने, उनका भगवान विष्णु से विरोध क्यों हुआ और इसके बावजूद उन्हें नवग्रहों में पूजनीय स्थान क्यों और कैसे मिला।

कौन हैं दैत्य गुरु शुक्राचार्य?

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यदि हम पौराणिक कथाओं की बात करते हैं तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य महर्षि भृगु और काव्या के पुत्र और भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद के भांजे थे। मान्यता है कि शुक्राचार्य जी का जन्म शुक्रवार के दिन को हुआ था इसलिए महर्षि भृगु ने इसका नाम शुक्र रखा था। जैसे ही शुक्राचार्य बड़े हुए उन्हें शिक्षा के लिए अंग ऋषि के आश्रम में भेजा गया। उस समय उसी आश्रम में अंग ऋषि के पुत्र बृहस्पति भी शिक्षा प्राप्त करते थे। ऐसे में शुक्राचार्य की बुद्धि बृहस्पति की तुलना में ज्यादा तीव्र थी, लेकिन फिर भी अंगऋषि अपे पुत्र की शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देते थे, इसी वजह से शुक्राचार्य को अंग ऋषि का आश्रम छोड़कर सनक ऋषि और गौतम ऋषि से शिक्षा लेने के लिए जाना पड़ा।

शिक्षा पूर्ण होने के बाद शुक्राचार्य को पता चला कि अंग ऋषि के पुत्र बृहस्पति को देवों का गुरु नियुक्त किया गया है, तो उन्होंने द्वेष में दैत्यों का गुरु बनने का निर्णय लिया। लेकिन असुर हमेशा युद्ध में देवों से पीछे ही रहते थे। ऐसे में शुक्राचार्य ने निर्णय लिया कि वो भगवान शिव की आराधना करके संजीवनी मंत्र प्राप्त करेंगे और इससे दैत्यों को विजय मिल। उसी समय शुक्राचार्य ने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए आराधना की और उनसे दैत्यों को विजयी बनाने के लिए संजीवनी प्राप्त कर ली। उसी समय दैत्य ज्यादा बलशाली हो गए और संजीवनी से कोई भी दैत्य मृत्यु को प्राप्त नहीं होता था।

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शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु कैसे बने?

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शुक्राचार्य के पिता भृगु ऋषि ने दैत्यों के प्रति सहानुभूति रखते थे। जब गुरु बृहस्पति देवताओं का मार्गदर्शन कर रहे थे उसी समय दैत्य और देवताओं के बीच बार-बार युद्ध होने शुरू हो गए। उस समय असुरों को भी एक ऐसे गुरु की आवश्यकता महसूस हुई जो उन्हें आध्यात्मिक और राजनीतिक मार्गदर्शन दे सके। उस समय गुरु बृहस्पति से द्वेष लेने के लिए शुक्राचार्य ने दैत्यों का गुरु बनने का यह उत्तरदायित्व स्वीकार किया और असुरों को संरक्षण प्रदान किया।

भगवान शिव से वरदान में प्राप्त उनकी संजीवनी विद्या ने असुरों को कई बार पुनर्जीवित करके युद्ध में विजयी बनाने में मदद भी की। इस कारण देवता उनसे भयभीत हो गए और कई बार उनकी तपस्या को भंग करने के प्रयास किए। लेकिन शुक्राचार्य अडिग रहे और उन्होंने दैत्यों के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखी।

शुक्राचार्य भगवान विष्णु के विरोधी क्यों थे?

एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक समय जब दैत्यों के राजा बलि तीनों लोकों पर अधिकार कर चुके थे, तब देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे उन्हें दैत्यों से बचाएं। उसी समय भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से भिक्षा में तीन पग भूमि मांगी। जब राजा बलि ने दान देने के लिए जल का कमंडल उठाया तब उन्हें रोकने शुक्राचार्य उस कमंडल की टोटी में बैठ गए। तब विष्णु उस कमंडल की टोटी को एक तिनके से साफ़ करने की कोशिश की, जिसमें वो तिनका शुक्राचार्य की आंख में घुस गया और इसी घटना की वजह से शुक्राचार्य विष्णु जी के विरोधी हो गए। हालांकि बाद में राजा बलि ने वामन जी को तीन पग भूमि दे दी और भगवान विष्णु को प्रसन्न करके वो पाताल लोक जे राजा बन गए, लेकिन शुक्राचार्य का विष्णु जी के प्रति विरोध बना रहा क्योंकि वे हमेशा दैत्यों के पक्ष में थे।

शुक्राचार्य को नवग्रहों में स्थान कैसे मिला?

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यदि हम शुक्राचार्य के ज्ञान की बात करें तो वो एक महान ज्योतिषाचार्य भी थे। उन्होंने उस दौरान शुक्रनीति नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें राज्यशास्त्र, राजनीति, कूटनीति और नैतिकता के कई नियमों का वर्णन है। वे केवल दैत्यों के गुरु ही नहीं बल्कि ब्रह्मांडीय ग्रहों की ऊर्जा को प्रभावित करने वाले व्यक्ति भी माने जाते हैं। शुक्र ग्रह का संबंध भौतिक सुख, प्रेम, विवाह, सौंदर्य, कला और विलासिता से होता है। शुक्राचार्य की प्रकृति इन गुणों से मेल खाती थी। वे न्यायप्रिय, संयमी, कला प्रेमी और गहन ज्ञान के अधिकारी थे। इन्हीं गुणों की वजह से उन्हें नवग्रहों में स्थान मिला और उनकी पूजा अन्य ग्रहों के साथ की जाने लगी। यही नहीं आज भी शुक्र ग्रह को स्त्रियों का कारक ग्रह माना जाता है। यह ग्रह व्यक्ति की वैवाहिक सुख-सुविधा, प्रेम संबंध और आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है। शुक्र की कृपा से व्यक्ति जीवन में भौतिक समृद्धि और वैभव प्राप्त करता है।

शुक्राचार्य को दैत्यों का गुरु माना जाता है और उन्हें कई शक्तियों का ज्ञाता माना जाता है। आपको यह स्टोरी अच्छी लगी हो तो इसे फेसबुक पर शेयर और लाइक जरूर करें। इसी तरह और भी आर्टिकल पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी से। अपने विचार हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।

Images: freepik.com

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