एक्सपर्ट से जानें हेल्दी रहने के लिए आयुर्वेदिक टिप्स

अपने शरीर को फिट और जिंदगी को खुशहाल बनाने के लिए अपनी प्रकृति को जानना अनिवार्य है। जानिए स्वस्थ रहने का सबसे बड़ा राज।

  • Abha Yadav
  • Editorial
  • Updated - 2019-09-09, 20:05 IST
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आज दुनिया का हर व्यक्ति स्वस्थ रहना चाहता है । अपने शरीर को फिट और जिंदगी को खुशहाल बनाने के लिए अपनी प्रकृति को जानना अनिवार्य है। जानिए स्वस्थ रहने का सबसे बड़ा राज।

जिस प्रकार कार को सुगमता से चलाने के लिए चालक को कार में स्थित होना आवश्यक है उसी प्रकार से हमारा अपने आप (स्वयं) में स्थापित हो कर रहना ही स्वस्थ होना कहलाता है।स्वस्थ अर्थात स्व $ स्थ, जिसका अर्थ है अपने में स्थित होना। जब हम अपने में स्थित नहीं होते है तो अस्वस्थ कहलाते हैं। आजकल की भाग-दौड़ भरी जीवन शैली में हमारे पास अपने आप को समझने का समय ही नहीं है। आयुर्वेद के अनुसार, यही हमारी अस्वस्थता या बीमारी का मूल कारण है। जरा सोचिए कि आपको एक कार दे दी जाए लेकिन आप कार के बारे में कुछ भी नहीं जानते, जैसे कि कहाँ से गीयर बदलते हैं, ब्रेक कहाँ है, यातायात के नियम क्या हैं, कार का ईंधन पैट्रोल है या डीजल, इत्यादि। और आपको कार चलाना भी नहीं आता, लेकिन आप इस कार को प्रतिदिन चलाते हैं। ऐसा करने पर आप का बार-बार ऐक्सीडेन्ट होगा और अपनी मंजिल तक भी नहीं पहुँच पाएंगे।

आधुनिक युग में अधिकतर लोग इसी स्थिति में हैं। हमें यह शरीर-रूपी कार दी गई है जिसके बारे में हमें अधिक ज्ञान नहीं है लेकिन हम इसे हर रोज प्रयोग करते हैं। परिणाम होता है थकान, मानसिक तनाव, अप्रसन्नता, हाई ब्लड प्रैशर, कोलेस्ट्रोल की अधिकता और अनेक प्रकार के रोग। हम बीमार हो जाते हैं और जीवन में सफल भी नहीं हो पाते हैं।

आयुर्वेद के अनुसार

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स्वस्थ रहने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है अपने आप को जानना। आयुर्वेद के अनुसार, हमारा शरीर पाँच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बना है। हर व्यक्ति में इन पाँचों महाभूतों की मात्रा भिन्न होती है। आयुर्वेद में इन्हीं पाँच महाभूतों से तीन प्रकार के दोष बनते हैं, जिन्हें वात, पित्त एवं कफ के नाम से जाना जाता है। वात, पित्त, कफ , तीनों दोष प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान रहते हैं लेकिन इनका अनुपात हर व्यक्ति में भिन्न होता है। दोषों की बहुलता व्यक्ति की प्रकति को दर्शाती है। उदाहरण के लिए वात की बहुलता वाले व्यक्ति की वात प्रकृति, पित्त की बहुलता वाले की पित्त और कफ की बहुलता वाले व्यक्ति की कफ प्रकृति होती है।

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किसी व्यक्ति में दो दोषों की बहुलता हो तो उसकी मिश्र प्रकृति होती है। वात में आकाश और वायु का, पित्त में अग्नि का और कफ में जल व पृथ्वी का प्राधान्य होता है। इसलिए वात प्रकृति वाले पुरूष वायु के समान दुबले पतले, अस्थिर व शुष्क त्वचा वाले होते हैं। पित्त प्रकृति वाले पुरूष मध्यम शरीर, तीव्र पाचकाग्नि, जल्दी गुस्सा करने वाले व महत्वाकांक्षी होते हैं। कफ प्रकृति वाले मोटे अथवा भारी, मन्दाग्नि, स्थिर व थोड़े सुस्त होते हैं। स्वस्थ रहने के लिए हमें अपनी प्रकृति को समझना आवश्यक है। यदि पित्त प्रकृति वाला व्यक्ति अधिक आग्नेय पदार्थों, जैसे मिर्च, गरम मसाला, चाय, कॉफ ी, मदिरा, तम्बाकू, अचार, आदि का सेवन करेगा तो उसका पित्त दोष विषम होकर अनेक प्रकार के रोग जैसे त्वचा के रोग, असमय बाल टूटना व सफेद होना, पेट में जलन, पेशाब में जलन, आदि को पैदा करेगा।

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आजकल अधिकांश रोगी जो हमारे पास आते हैं उनके रोग का प्रमुख कारण यही होता है कि वे अपनी प्रकृति के विरूद्घ भोजन या जीवनशैली जीते हैं। जिस प्रकार डीजल से चलने वाली कार में यदि हम पैट्रोल डाल दें तो वह खराब हो जाएगी, उसी प्रकार से प्रकृति-विरूद्घ आहार-विहार सेवन करने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य शरीर, मन, इन्द्रियों एवं आत्मा के संयोग से बना है। स्वास्थ्य का अर्थ केवल स्वस्थ शरीर ही नहीं बल्कि स्वस्थ इन्द्रियाँ, प्रसन्न मन व संतुष्टड्ढ आत्मा है। स्वस्थ रहने के लिए अपनी शारीरिक प्रकृति के साथ-साथ मन, इन्द्रियों और आत्मा का ज्ञान भी आवश्यक है। आजकल बहुत सारे शारीरिक रोगों का मूल अस्वस्थ मन बताया जाता है।

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यही कारण है कि आधुनिक विज्ञान अधिकांश रोगों के मूल को नहीं समझ पाता और केवल शरीर के लक्षणों की चिकित्सा करता है। आयुर्वेद में सम्पूर्ण स्वास्थ्य लाभ कराने का प्रयत्न किया जाता है, जिसमें न केवल शारीरिक लक्षणों को ठीक कराने के लिए औषधि दी जाती है, बल्कि इन्द्रियों को स्वस्थ मन को प्रसन्न व आत्मा को आनन्दित करने के सुझाव भी दिए जाते हैं। शरीर, मन, इन्द्रियों और आत्मा को प्राकृतावस्था में बनाए रखना ही स्वस्थ होने की परिभाषा है। इस स्वस्थ अवस्था को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपनी प्रकृति को समझें और उसमें स्थापित होकर कार्य करें। जिस प्रकार कार को सुगमता से चलाने के लिए चालक का कार में स्थित होना आवश्यक है, उसी प्रकार से हमें अपने आप (स्वयं) में स्थापित होकर रहना ही स्वस्थ होना कहलाता है स्वस्थ रहने के प्रयास में सर्वप्रथम अपनी प्रकृति को समझना ही मूल है।

जब हम अपनी प्रकृति के अनुसार

आहार-विहार का सेवन करेंगे तो न केवल शरीर बल्कि इन्द्रियां और मन भी स्वस्थ रहेंगे। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। शरीर यदि रोगी हो तो मन भी अप्रसन्न होता है। इसलिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रकृति को जाने, उसके अनुसार अपना भोजन, जीवनशैली, व्यवहार, दिनचर्या, व्यायाम, प्रसाधन, विचार, आदि का सेवन करे। यदि आप अपनी प्रकृति जानना चाहते हैं तो वात-पित्त-कफ टेस्ट कर सकते हैं ।

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