भगवान शिव की नगरी काशी में कई घाट मौजूद हैं जिनका अपना एक महत्व और रहस्य है। इन्हीं में से एक है मणिकर्णिका घाट। मणिकर्णिका घाट को लेकर ऐसा माना जाता है कि यहां हर समय चिताएं जलती रहती हैं। यहां कभी भी अंतिम संस्कार रुकता नहीं है। मणिकर्णिका घाट को लेकर एक पौराणिक कथा भी है जिसके अनुसार आज जहां यह घाट स्थापित हैं वहां माता पार्वती के कान का फूल घिरा था जिसे भगवान शिव ने ढूंढा था और तभी से इसका नाम मणिकर्णिका घट पड़ गया। इस घाट से जुड़े कई रोचक तथ्य है और ऐसा ही तथ्य यह भी है कि आखिर सबसे पहले किसकी चिता इस घट पत जलाई गई थी। तो चलिए जानते हैं ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से।
पौराणिक कथा के अनुसार, रिपुञ्जय नामक एक दिव्य पुरुष थे जिन्होंने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की थी। ब्रह्मा जी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें काशी का राजा बनाया था। रिपुञ्जय काशी के प्रथम राजा बने और ब्रह्मा जी ने उन्हें दिवोदास नाम भी प्रदान किया।
दिवोदास का अर्थ होता है देवों का दास, जब इस नाम के अर्थ के बारे में रिपुञ्जय राजा को पता चला तो उन्होंने क्रोध में आकर देवताओं का काशी में प्रवेश वर्जित कर दिया था, लेकिन इसके बाद देवी-देवता पंचगंगा घाट पर महात्म्य की प्राप्ति के लिए छुपकर आया करते थे।
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हालांकि बाद में देवी-देवताओं ने राजा रिपुञ्जय को मनाया और पुनः काशी में प्रवेश की अनुमति प्राप्त कर ली थी। ऐसा कहा जाता है कि राजा रिपुञ्जय ने देवताओं को इस शर्त पर प्रवेश दिया था कि उनकी मृत्यु के समय भी सभी देवी-देवता काशी में उपस्थित होंगे।
कथा के अनुसार, देवताओं ने अपना वचन निभाया और जब राजा रिपुञ्जय की मृत्यु का समय नजदीक आया तो सभी काशी में पहुंच गए। तब देवराज इंद्र ने ही खुद अपने हाथों से राजा रिपुञ्जय का मणिकर्णिका घाट पर प्रथम बार अंतिम संस्कार किया था।
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ऐसे में राजा रिपुञ्जय मणिकर्णिका घाट पर अंतिम संस्कार पाने वाले पहले व्यक्ति थे। हालांकि कई ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि जो सबसे पहली संतों की टोली काशी के स्थापित होने के बाद यहां गई थी, उन्हीं संतन का अंतिम संस्कार सबसे पहले हुआ था।
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