हिंदू धर्म में पितृपक्ष को ऐसी अवधि के रूप में देखा जाता है जब हमारे पूर्वज किसी न किसी रूप में आस-पास ही मौजूद होते हैं। सदियों से यह परंपरा चली आ रही है कि पितृपक्ष या श्राद्ध के सोलह दिनों में पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए कर्म किए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान यदि आप सही नियमों का पालन करते हुए श्राद्ध कर्म करते हैं, पिंड दान और तर्पण करते हैं तो पितरों को शांति मिलती है और उनका आशीर्वाद हमारे जीवन में सदैव बना रहता है। यह समय केवल धार्मिक परंपराओं को आगे बढ़ाने का नहीं होता है बल्कि पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का भी होता है। पितृपक्ष को श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ होता है श्रद्धा से अर्पित करना, इसी वजह से पितृपक्ष में वंशज अपनी 14 पीढ़ियों तक के लोगों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं और उनसे अपने अच्छे जीवन की कामना करते हैं। अगर आप भी पितृपक्ष की अवधि में पिंडदान और तर्पण करते हैं, तो आपको इसकी सही तिथि और नियमों का पालन करने की जानकारी भी होनी चाहिए। आइए ज्योतिर्विद पंडित रमेश भोजराज द्विवेदी से जानते हैं पितृ पक्ष की धार्मिक मान्यताएं, श्राद्ध से जुड़े कुछ नियम और महत्व के बारे में विस्तार से। गूगल ट्रेंड्स में भी पितृपक्ष के लिए लोग कई बातों के बारे में सर्च कर रहे हैं। यहां जानें आप भी अपने सवालों के सही जवाब।
हिंदू पंचांग के अनुसार इस साल पितृपक्ष का आरंभ 07 सितंबर, रविवार भाद्रपद पूर्णिमा के दिन से हो रहा है। इसी दिन साल का आखिरी चंद्र ग्रहण भी लग रहा है। वहीं इसका समापन 21 सितंबर, रविवार के दिन सर्वपितृ अमावस्या के दिन होगा। ऐसे में मातृ नवमी 16 सितंबर को मनाई जाएगी और इसी दिन पूर्वज महिलाओं का श्राद्ध किया जाएगा। इस पूरे पखवाड़े में लोग दिवंगत पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध कर्म करते हैं। अगर आप भी पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करते हैं, तो इन तिथियों को जरूर ध्यान में रखें।
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श्राद्ध कर्म के लिए कुछ विशेष सामग्रियों की आवश्यकता होती है। आइए जानें पितृपक्ष की सामग्री के बारे में-
पिंडदान को पितृपक्ष का सबसे महत्वपूर्ण कर्म माना जाता है। इस कर्म को करने के लिए आपको पिंडदान की सही विधि के बारे में जानकारी होनी चाहिए।
पितृपक्ष के दौरान पंचबलि कर्म का विशेष महत्व होता है। ऐसा कहा जाता है कि पितृपक्ष में श्राद्ध के दौरान पंचबलि कर्म किया जाता है जिसका विशेष महत्व होता है। पंचबलि शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भासः से हुई है जिसमें पंच का अर्थ पांच होता है और बलि का अर्थ होता है भेंट चढ़ाना। पितृपक्ष में जब पूर्वजों के निमित्त कर्म किए जाते हैं तब सबसे पहले पंचबलि कर्म किया जाता है जिसमें पांच जगह पर भोजन रखा जाता है जो पांच अलग प्राणियों को अर्पित किया जाता है। इनमें गाय, कौआ, कुत्ता, चींटी और पूर्वज शामिल होते हैं। किसी भी पूर्वज के श्राद्ध में इस कर्म को अनिवार्य माना जाता है और इससे उनकी आत्मा को संतुष्टि मिलती है।
पितृपक्ष में कौए को भोजन कराना जरूरी माना जाता है। शास्त्रों की मानें तो कौआ पितरों का संदेशवाहक होता है और जब कौए को भोजन कराया जाता है तो यह सीधे पूर्वजों तक पहुंचता है। यही नहीं इस कर्म को लेकर एक धार्मिक मान्यता यह भी है कि यदि आप कौए के लिए भोजन निकालती हैं और वो इसे ग्रहण कर लेता है तो यह सीधे ही आपके पूर्वजों द्वारा ग्रहण किया माना जाता है।
पितृपक्ष का अर्थ है पूर्वजों का पखवाड़ा यानी कि हिंदू पंचांग के अनुसार यह 16 दिनों की एक ऐसी अवधि होती है जब पूर्वजों को याद करते हुए उनके निमित्त कर्म किए जाते हैं, इसी वजह से इस समय को पूर्वजों यानी पितृ का पखवाड़ा माना जाता है। इस पूरी अवधि को सोरह श्राद्ध, महालया पक्ष, कनागत, श्राद्ध पक्ष जैसे नामों आदि नामों से भी जाना जाता है। वहीं जब हम 'पितर' शब्द की बात करते हैं तो यह केवल पिता या दादा नहीं बल्कि पूरी 16 पीढ़ियों के पूर्वजों को समर्पित होता है। पितृ शब्द का अर्थ हमारे पूर्वजों से होता है।
निष्कर्ष: पितृपक्ष का समय न केवल धार्मिक आस्था और परंपरा का प्रतीक होता है, बल्कि यह हमारे पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने और उनके आशीर्वाद से जीवन में सुख-समृद्धि पाने का एक महत्वपूर्ण अवसर भी माना जाता है। इसी वजह से इस दौरान पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए कर्म जरूर करने चाहिए।
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