होली का त्योहार हर किसी के लिए ऐसा जैसा नहीं होता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण नेहा के परिवार के साथ हुई घटना है। होली के पर्व की शुरुआत हो चुकी थी नेहा के घर में त्योहार की शुरुआत खुशी और गरमा गरम पकोड़े तलने के साथ हुई थी। बेसन और मसालों की खुशबू पूरे घर में फैल चुकी थी। कढ़ाई में तले जा रहे पकोड़ों की महक इतनी तेज थी कि बाहर से गुजरते पड़ोसी भी रुक कर एक झलक अंदर देखने लग रहे थे। हर साल की तरह इस बार भी होली का माहौल बन रहा था, लेकिन घर के बाकी सदस्य अपने-अपने कमरों में आराम फरना रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे यह त्योहार सिर्फ नेहा और उसकी मां के लिए ही हो।
नेहा की मां और नेहा सुबह से ही किचन में लगी हुई थीं। नेहा झुंझला रही थी कि त्योहार पर भी उसके चाचा-चाची कोई मदद नहीं कर रहे थे। उनके दो छोटे बेटे भी ऊपर ही थे, लेकिन किसी ने नीचे आकर कोई काम हाथ में नहीं लिया। नेहा के पिता सुबह उठने के बाद से ही घर के सामान को प्लास्टिक और चादरों से ढकने में लगे हुए थे, ताकि रंगों का दाग न लग जाए। उन्हें अपने इस घर से बहुत लगाव था, आखिर यह उनके माता-पिता ने बनाया था और उनका बचपन इसी घर में बीता था।
नेहा इस घर में इकलौती बेटी थी और अपने माता-पिता के साथ नीचे के हिस्से में रहती थी। ऊपर वाले फ्लोर पर उसके चाचा-चाची अपने दो बेटों के साथ रहते थे। लेकिन नेहा को हमेशा यह खलता था कि वे कभी घर के कामों में मदद नहीं करते थे। त्योहारों पर भी उनका यही हाल रहता था—जब सारी तैयारी पूरी हो जाती, तभी वे शान से नीचे उतरते। लेकिन नेहा के पिता को इससे फर्क नहीं पड़ता था। उनका यही मानना था कि उनका छोटा भाई बचपन से ही ऐसा था, और परिवार में कोई किसी से शिकायत नहीं रखनी चाहिए। नेहा गुस्से में बड़बड़ाते हुए बोली, 'मां, ये त्योहार क्या सिर्फ हमारे लिए है? हम सुबह से उठकर काम कर रहे हैं, और चाची महारानी की नींद अभी तक नहीं खुली क्या?'
उसने आगे कहा, 'मुझे ऊपर से उनकी आवाज़ सुनाई दी थी, वे जाग चुकी हैं, लेकिन फिर भी नीचे नहीं आ रही हैं! ये क्या तरीका है? उनको पता है न, आज त्योहार का दिन है, मेहमान आएंगे, घर में कितने सारे काम होंगे?"नेहा की मां ने घबरा कर उसे धीरे से डांटते हुए कहा, 'अरे चुप रहो! ऐसे बड़ों के लिए नहीं बोलते! जो करना है, हमें ही करना है, तुम चुपचाप पकोड़ियां तलो!' नेहा ने गहरी सांस ली और चुपचाप कढ़ाई में पकोड़े डालने लगी। गर्म तेल में पकोड़े छनने लगे और उनकी महक पूरे घर में भर गई। तभी अचानक सीढ़ियों से तेज कदमों की आवाज़ आई। नेहा ने देखा, उसके चाचा-चाची जल्दी-जल्दी नीचे उतर रहे थे।
चाची ने मुस्कुराते हुए कहा, "अरे नेहा, क्या बन रहा है? बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है!'
नेहा मन ही मन सोचने लगी, 'अभी तक नीचे नहीं आईं थीं, लेकिन पकोड़ों की खुशबू आते ही भागी चली आईं!' चाचा ने भी हंसते हुए कहा, 'अरे, होली पर गरमागरम पकोड़े न मिले तो मजा ही नहीं आता!'
नेहा ने अपनी मां की ओर देखा, लेकिन मां ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उन्होंने बस मुस्कुराते हुए एक प्लेट में पकोड़े रखे और चाची को पकड़ा दिए। नेहा समझ गई, उसकी मां को इन सब बातों की आदत हो चुकी थी। लेकिन उसे यह सब अच्छा नहीं लगा। वह सोच रही थी—"क्या त्योहार सिर्फ खाने-पीने के लिए होते हैं? अगर मिलकर काम न किया जाए, तो क्या सच में त्योहार का मजा आता है?" लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। उसने सिर्फ अपनी मां की तरह मुस्कुराते हुए पकोड़े तलने जारी रखे, क्योंकि होली थी..
अभी नेहा के पिता घर के काम में ही लगे थे.. लेकिन चाचा-चाची टीवी चलाकर सोफे पर आराम से बैठे..पकोड़ियों के मजे ले रहे थे…
नेहा यह सब चुपचाप देख रही थी, लेकिन अंदर से उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा था। चाची ने पकोड़े खाते-खाते बड़ी चालाकी से कहा, "अरे नेहा, ज़रा अपने चाचा को चाय दे देना!'
नेहा समझ गई कि चाची को खुद चाय चाहिए थी, लेकिन वह चाचा का नाम लेकर मांग रही थी ताकि किसी को एहसास न हो कि वह खुद सेवा करवाना चाहती हैं। नेहा को यह सुनकर और भी गुस्सा आ गया। वह झुंझलाते हुए मां से बोली, 'मैं नहीं दूंगी चाय! मैं क्यों दूं? आपको देनी है तो आप दीजिए! चाची खुद पीना चाहती हैं, लेकिन चाचा का नाम लेकर मांग रही हैं!' उसकी मां ने गुस्से में उसे घूरा और सख्त लहज़े में कहा, 'तुम अपना मुंह बंद क्यों नहीं रखती? चाय मांगी है, तो जाकर दे दो! इसमें इतना नाराज होने की क्या बात है?'
नेहा का गुस्सा और बढ़ गया। उसने बिना कुछ कहे गुस्से में कलछी ज़ोर से किचन के स्लैब पर पटकी और झटके से वहां से निकल गई। वह बिना कुछ बोले सीधे अपने कमरे में चली गई और दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर लिया।
नेहा की इस नाराजगी को उसके पिता ने देख लिया। वह फौरन किचन में आए, शायद यह समझ गए थे कि उनकी बेटी को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन नेहा के चाचा-चाची पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। वे मज़े से सोफे पर बैठे-बैठे पकोड़े खाते रहे, जैसे कुछ हुआ ही न हो। चाची ने हल्की सी मुस्कान के साथ चाचा की तरफ देखा और धीरे से कहा, 'बड़ी तेज हो रही है नेहा… त्यौहार पर भी मूड खराब कर लिया इसने!' चाचा ने हंसते हुए जवाब दिया, 'अरे छोड़ो, बच्चों को ज्यादा बोलने की आदत हो गई है आजकल!'
नेहा के पिता ने उसकी मां से पूछा… अरे भागवान त्योहार की सुबह क्या बोल दिया नेहा को ऐसा, जो वो नाराज होकर चली गई, नेहा की मां ने सीधी जवाब दिया.. कुछ नहीं, ऐसे ही नाटक करती है और फिर वह पकोड़े तलने में लग गई..नेहा के पिता ने 2 कप चाय निकाली और जाकर चाचा-चाची को दे दिया। नेहा कमरे की खिड़की में से देख रही थी, उसके पिता को चाय देता देख उसे बहुत बुरा लग रहा था..नेहा अपने कमरे की खिड़की से सब कुछ देख रही थी। उसे यह देखकर बहुत बुरा लग रहा था कि उसके पिता, जो सुबह से बिना रुके घर के कामों में लगे थे, अब खुद चाय बनाकर चाचा-चाची को दे रहे थे। चाचा-चाची नेहा की बनाई पकोड़ियों का आनंद ले रहे थे और अब चाय की चुस्कियां भी ले रहे थे, मानो उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि घर के बाकी लोग कितनी मेहनत कर रहे हैं।
नेहा को समझ नहीं आ रहा था कि उसके पिता हमेशा चाचा-चाची की इतनी परवाह क्यों करते हैं, जबकि वे कभी भी घर के किसी काम में मदद नहीं करते। इसी बीच चाचा-चाची के छोटे बच्चे रंग लेकर घर में इधर-उधर दौड़ने लगे। "होली है! होली है!" चिल्लाते हुए वे पूरे घर में रंग उड़ा रहे थे। नेहा के पिता बच्चों को देखकर हंसने लगे। नेहा की मां भी किचन से बाहर आ गईं और मुस्कुराते हुए बच्चों को देखने लगीं.."होली पर बच्चों को देखकर ही तो असली खुशी मिलती है!" नेहा के पिता ने कहा।
नेहा की मां भी उनकी बात से सहमत थीं। चाचा-चाची भी हल्की सी मुस्कान के साथ पकोड़े खाते हुए यह सब देख रहे थे। लेकिन उनकी हंसी में कुछ अजीब सा अहसास था, मानो वे किसी बात से राहत महसूस कर रहे हों या कोई बात छुपा रहे हों। तभी 'बड़े पापा! आज तो घर में कुछ बड़ा होने वाला है ना? आपको बहुत मज़ा आएगा!' चाचा के छोटे बेटे ने अचानक नेहा के पिता से कहा ..नेहा यह बात अपने कमरे से सुन रही थी। उसे कुछ अजीब सा लगा। बच्चे की बातों में कुछ ऐसा था जो सामान्य नहीं था। नेहा के पिता मुस्कुराते हुए बोले, 'अरे, क्या बड़ा होने वाला है? हमें तो कुछ नहीं पता। तुम ही बता दो छोटे शैतान! इतना सुनते ही चाची के चेहरे का रंग उड़ गया। वह तुरंत सोफे से उठी और घबराहट में अपने बेटे का मुंह हाथ से बंद कर दिया।
'अरे भैया, ये तो कुछ भी बोलता रहता है। इसकी बातों पर ध्यान मत दीजिए! आज होली का बड़ा त्योहार है, तो यही कह रहा है।' चाची ने जबरदस्ती हंसते हुए कहा, लेकिन उनकी आवाज़ में घबराहट साफ झलक रही थी..नेहा ने धीरे-धीरे अपने कमरे का दरवाज़ा खोला और बाहर आई। उसका ध्यान अब पूरी तरह चाचा-चाची पर था। आखिर ऐसा क्या होने वाला था, जिससे वे इतना परेशान हो गए थे?
नेहा चाचा-चाची के वापस अपने कमरे में जाने का इंतजार कर रही थी, ताकि वह बच्चों से बात कर सकें।
आखिर उसे मौका मिल गया, चाय पकोड़े खत्म होते ही.. दोनों ने नेहा के माता-पिता को रंग लगाया.. होली विश किया और अपने कमरे में चले गए। उनके ऊपर जाते ही नेहा ने फौरन चाचा-चाची के छोटे बेटे का पकड़ा और उसे कमरे में ले गई। उसने बोला, अरे छोटू इधर आओ,, मैं तुम्हे एक सुंदर पिचकारी दिखाती हूं..बच्चा भी नेहा की बात सुनकर उसके साथ चला गया। उसने बच्चे को कमरे में ले जाते ही पूछा, तुम बड़े पापा से क्या कह रहे थे? क्या बड़ा होने वाला है, बोलो- बच्चे ने कहा…अरे मम्मी-पापा ऊपर कमरे में कह रहे थे कि औज वो कुछ ऐसा करेंगे, जिसमें आप लोगों को बहुत मजा आएगा, उनके हाथ में एक पेपर भी था,वो कुछ सरप्राइज देंगे।
नेहा बच्चे की बात सुनकर घबरा सी गई थी। उसे ऐसा लग रहा था कि आज चाचा-चाची कुछ बड़ा कांड करने वाले है, उसे कैसे भी करके ये रोकना होगा। उसने बच्चे को जाने के लिए कहा और ये बातें जाकर अपनी मां को बताई, लेकिन नेहा की मां ने कहा- अरे तुम फालतू में उल्टा पुल्टा मत सोचे, पहले भी देखा है न तुमने.. बच्चे कुछ भी समझ लेते हैं। क्या पता क्या बात हो रही हो उनके बीच में।
नेहा बार-बार अपनी मां से कह रही थी, "नहीं मां, इस बार कुछ तो गड़बड़ है! लेकिन उसकी मां ने उसे नजरअंदाज कर दिया। तभी घर में चाचा का दोस्त, एक वकील, आ गया। नेहा वकील को देखकर हैरान रह गई। उसने तुरंत मां से पूछा, देखो, ये वकील क्यों आया है?'
मां ने सहजता से जवाब दिया, 'अरे, कल ही इसे फोन करके बुलाया था। हमने कहा था कि होली के त्योहार पर आ जाना।" बाहर नेहा के पिता वकील से हंसते हुए बातें कर रहे थे। उन्होंने नेहा को आवाज लगाई, 'अरे नेहा, वकील साहब आए हैं, चाय-पकोड़े लाओ!" वकील का नाम सुनते ही चाचा फौरन अपने कमरे से बाहर आ गए और ऊपर से ही बोले, 'भैया, एक बार उन्हें ऊपर भेज दो, मुझे कुछ काम है।' नेहा के पिता हंसते हुए बोले, "जाओ, मिलकर आओ।' नेहा का मन अब और ज्यादा बेचैन हो गया था, लेकिन उसके माता-पिता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। एक घंटा बीत गया, लेकिन वकील साहब ऊपर से नीचे नहीं आए। नेहा अपनी मां से बात करने ही जा रही थी कि तभी चाचा-चाची और वकील नीचे उतरने लगे। वकील के हाथ में कुछ कागज थे, जिसे देखकर नेहा का शक और बढ़ गया।
नेहा ने घबराते हुए कहा- 'मां, देखो, उनके हाथ में पेपर हैं!' अब उसकी मां को भी लगने लगा था कि कुछ गड़बड़ जरूर है। नेहा के पिता होली के रंग हाथ में छिपाकर खड़े थे, जैसे ही चाचा और वकील नीचे आएंगे, वह उन पर रंग डाल देंगे। लेकिन तभी वकील ने गंभीर स्वर में कहा, 'भाई साहेब, बैठिए, हमें कुछ जरूरी बात करनी है।' नेहा के पिता अब भी मुस्कुरा रहे थे, 'अरे, बातें तो होती रहेंगी, पहले रंग तो लगवा लो!' तभी चाचा ने अचानक नेहा के पिता का हाथ पकड़ लिया और गहरी आवाज़ में बोले, 'भैया, रुक जाओ... पहले बात सुन लो।'
यह सुनते ही नेहा के पिता के चेहरे से मुस्कान गायब हो गई। सभी लोग धीरे-धीरे सोफे पर बैठ गए। नेहा और उसकी मां की आंखों में आंसू भर आए थे। उन्हें आभास हो गया था कि कुछ बड़ा होने वाला है। वकील ने कागज निकालते हुए कहा, 'भाईसाहेब, आपके छोटे भाई ने कुछ पेपर तैयार करवाए हैं, और अब इसमें आप कुछ नहीं कर सकते। सब कुछ पहले से ही तय हो चुका है। इसलिए मैं आपको पहले ही बता रहा हूं कि आप चाहें तो दूसरा वकील भी बुला सकते हैं, लेकिन कुछ बदला नहीं जा सकता।' अब आपको इसे स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि इसके जिम्मेदार सिर्फ आप ही हैं।'
यह सुनते ही नेहा के आंसू टप-टप बहने लगे। नेहा के पिता सदमे में चले गए। उन्होंने कांपती आवाज़ में पूछा, 'यह किस चीज़ के पेपर हैं?' वकील ने चुपचाप कागज उनके हाथ में पकड़ा दिए। तभी नेहा की मां गुस्से में बोलीं, 'आप लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं? आखिर ये पेपर हैं किस चीज़ के?' नेहा के पिता कागज पढ़ते ही रोने लगे। होली का त्योहार अब किसी दुखद घड़ी में बदल चुका था। नेहा ने तुरंत अपने पिता के हाथ से पेपर छीन लिए और पढ़ने लगी।
पेपर पढ़ते ही नेहा चौंक गई! सबको लग रहा था कि चाचा ने घर अपने नाम करवा लिया है या पिता की संपत्ति हड़प ली है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। यह पेपर पड़ोस की एक दुकान के थे। दरअसल, चाचा ने पड़ोस की एक दुकान खरीदी थी, जो नेहा के पिता के नाम पर रजिस्टर्ड थी। नेहा के पिता घर पर ही रहते थे और बेरोजगार महसूस करते थे। इसलिए चाचा ने उन्हें होली पर एक बड़ा तोहफा दिया था—ताकि वे उस दुकान को संभाल सकें और खुद को व्यस्त रख सकें। पेपर पढ़ते ही नेहा की आंखों से आंसू फिर से बहने लगे, लेकिन इस बार खुशी के आंसू थे। वह दौड़कर चाचा से लिपट गई।
चाचा ने मुस्कुराते हुए कहा, "अरे पगली, मैं अपने भाई के साथ कुछ गलत नहीं कर सकता। तूने ऐसा कैसे सोच लिया? हम कामचोर भले ही हैं, लेकिन मेरा भाई मेरे लिए पिता समान है!" अब पूरे घर में खुशी का माहौल बन गया। तभी पड़ोसी रंग लेकर दरवाजे पर आ गए और बोले, 'अरे, क्या हो रहा है? सब गले मिल रहे हैं, थोड़ा प्यार हमें भी दे दो!' इसके बाद पूरा परिवार एक-दूसरे को रंग लगाने में जुट गया। इस बार की होली सिर्फ रंगों की नहीं, बल्कि रिश्तों के प्यार और विश्वास की भी थी।
यह कहानी पूरी तरह से कल्पना पर आधारित है और इसका वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं है। यह केवल कहानी के उद्देश्य से लिखी गई है, जिससे समाज में जागरूकता और संवेदनशीलता को बढ़ावा दिया जा सके। हमारा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। ऐसी ही कहानी को पढ़ने के लिए जुड़े रहें हर जिंदगी के साथ।
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